शिक्षा को छत्तीसगढ़ प्र्राथमिक मानता ही नहीं। तभी यह विभाग ऐसे हाथों में बेहयाईपूर्वक जारी है, जिनके माथे पर अपनी पत्नी की जगह किसी और को परीक्षा दिलाने का दाग है। इस पर सूबे के मुखिया को भी शर्म नहीं आती। शिक्षा के विभागीय मुखियाओं को तो आएगी ही क्यों? शिक्षा को सरकारों के संगठन अपनी विचारधाराओं के विस्तार के लिए टूल बनाते हैं, लेकिन हालात नहीं सुधारते। कालांतर में जब उच्च शिक्षा में गिरावट आती है तो सर पटककर रोने के अलावा कोई चारा नहीं होता, क्योंकि उन्होंने स्कूल शिक्षा को शिक्षा ही नहीं माना। जिस देश में नालंदा जैसे विश्वविद्यालय रहे हों वहां शिक्षा की ये स्थिति लाख चांद, मंगल , अंतिरक्ष पर धरे कदमों को बेकार साबित करती है। ये वक्त हंसने का है या रोने का, जहां सरकारी स्कूल शिक्षा की कब्रगाह बन रहे हैं। ये तो बच्चों की प्रतिभा है, जो दुश्वारियों के बावजूद अधिकतर सफल हुए। अभी तो बात ऊपर से सिर्फ सरकारी बनाम निजी स्कूलों की की जा रही है, स्कूलों के नतीजों के प्रतिशत देखे जाएंगे तो सरकार आपकी ऐसी नाकामायाबियों का सच खोखले प्रचार के ढिंढोरों के बीच भी चीख उठेगा।