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किसी को ‘गोरखा’ जैसा तो किसी को ‘हीरो टाइप’ नहीं हो कहकर किया रिजेक्ट, फिर भी नहीं दबा पाए हुनर को

दूसरे कारोबारों की तरह यहां भी लोग अपने हिसाब से टीम बनाने के लिए आजाद हैं। इस टीम में अगर कोई सिर्फ भाई-भतीजावाद के सहारे दाखिला लेता है और हुनर के मामले में फिसड्डी है तो उसकी गाड़ी ज्यादा दूर तक नहीं जा पाती। इसी तरह किसी के हुनर को ज्यादा देर तक दबाया भी नहीं जा सकता।

मुंबईJun 22, 2020 / 05:37 pm

पवन राणा

किसी को 'गोरखा' जैसा तो किसी को 'हीरो टाइप' नहीं हो कहकर किया रिजेक्ट, फिर भी नहीं दबा पाए हुनर को

किसी को ‘गोरखा’ जैसा तो किसी को ‘हीरो टाइप’ नहीं हो कहकर किया रिजेक्ट, फिर भी नहीं दबा पाए हुनर को

-दिनेश ठाकुर

सुशांत सिंह राजपूत को दुनिया से गए एक हफ्ते बाद भी उनकी मौत को लेकर नई-नई सुर्खियां लगातार सामने आ रही हैं। फिल्म इंडस्ट्री पर गुटबाजी और भाई-भतीजावाद के आरोप जड़े जा रहे हैं। कुछ बड़े सितारों और निर्माताओं को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर तू-तू-मैं-मैं की सारी हदें लांघी जा रही हैं और स्वयंभू विशेषज्ञ ऐसी अनाप-शनाप बातें फैला रहे हैं, जिनका सिर-पैर नजर नहीं आता। इन विशेषज्ञों में कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने शायद सुशांत सिंह की एक फिल्म तक नहीं देखी होगी।

जहां तक गुटबाजी और भाई-भतीजावाद की बात है, यह तो बरसों से फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा हैं। कला के साथ-साथ सिनेमा कारोबार भी है। आरक्षण जैसी बंदिश यहां नहीं है। दूसरे कारोबारों की तरह यहां भी लोग अपने हिसाब से टीम बनाने के लिए आजाद हैं। इस टीम में अगर कोई सिर्फ भाई-भतीजावाद के सहारे दाखिला लेता है और हुनर के मामले में फिसड्डी है तो उसकी गाड़ी ज्यादा दूर तक नहीं जा पाती। इसी तरह किसी के हुनर को ज्यादा देर तक दबाया भी नहीं जा सकता। धर्मेंद्र जब हीरो बनने पंजाब से मुम्बई पहुंचे थे तो कुछ फिल्मकारों ने उन्हें फिल्मों में काम ढूंढने के बजाय फुटबॉल खेलने की सलाह दी थी, राजेश खन्ना का ‘गोरखा’ कहकर मजाक उड़ाया गया था तो अमिताभ बच्चन को उनकी लम्बाई की वजह से फिल्में नहीं दी जा रही थीं। इन तीनों हस्तियों का इंडस्ट्री में न कोई भाई था, न भतीजा। संघर्ष के बाद जब तीनों के सितारे बुलंद हुए तो उपेक्षा करने वाले भी सलाम की मुद्रा में आ गए। इसके विपरीत राज कपूर जैसे शोमैन अपने छोटे बेटे राजीव कपूर को टिकाऊ हीरो नहीं बना सके, क्योंकि एक्टिंग के जो तत्व ऋषि कपूर में थे, राजीव कपूर में नहीं थे। चेतन आनंद अपनी ‘हकीकत’ की हीरोइन प्रिया राजवंश को दिल दे बैठे। उन्हें लेकर उन्होंने कुछ और फिल्में बनाईं, लेकिन किसी दूसरे फिल्मकार ने प्रिया में दिलचस्पी नहीं दिखाई, क्योंकि उनके साथ भी राजीव कपूर वाली बात थी। इसी तरह संध्या सिर्फ वी. शांताराम की फिल्मों तक सीमित रहीं।

पचास के दशक में, जब फिल्म संगीत पर मोहम्मद रफी, मुकेश और तलत महमूद की आवाजें छाई हुई थीं, कई संगीतकारों ने किशोर कुमार को ज्यादा भाव नहीं दिया। संघर्ष के दिनों में किशोर कुमार को खुद संगीतकार बनना पड़ा। बतौर संगीतकार उनकी पहली फिल्म ‘झुमरू’ (1961) के ‘मैं हूं झुम-झुम-झुम झुमरू’, ‘कोई हमदम न रहा’ और ‘ठंडी हवा ये चांदनी सुहानी’ जैसे गानों के जरिए उनकी आवाज ने धूम मचाई तो उन संगीतकारों को भी उनकी शरण में आना पड़ा, जो पहले उन्हें गायक मानने को तैयार नहीं थे। अपने ज्यादातर गाने मोहम्मद रफी से गवाने वाले नौशाद फिर भी किशोर कुमार को मौका देने से बचते रहे। नौशाद ने अपने कॅरियर में किशोर कुमार से सिर्फ एक गाना ‘हैलो हैलो क्या हाल है’ (सुनहरा संसार/ 1975) गवाया, जो फिल्म में शामिल नहीं किया गया। नौशाद जैसे कुछ दूसरे संगीतकारों के उपेक्षा-भाव से किशोर कुमार की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा। यानी खेमेबाजी और भाई-भतीजावाद से न तो किसी कलाकार के हुनर को दबाया जा सकता है और न किसी गैर-हुनरमंद की नाव को ज्यादा देर तक तैराया जा सकता है।

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