आलोचकों की परवाह नहीं की
‘ए मेरे वतन के लोगो’ की धुन ने सी. रामचंद्र के आलोचकों पर गंगा जल छिड़क दिया। इन आलोचकों की शिकायत रहती थी कि रामचंद्र ‘धींगड़धांगड़’ गीतों से लोगों की रुचि बिगाड़ रहे हैं। ‘शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो’, ‘आना मेरी जान संडे के संडे’ आदि को आलोचक ‘धींगड़धांगड़’ मानते थे। सी. रामचंद्र ने कभी आलोचकों की परवाह नहीं की। करते तो भारतीय फिल्म संगीत कई नए प्रयोगों से वंचित रह जाता। इस संगीत में पाश्चात्य रंग घोलने का सिलसिला सी. रामचंद्र ने ही शुरू किया। उनका ‘शोला जो भड़के’ (अलबेला) पहला फिल्मी गीत है, जिसमें क्लारनेट, बोंगो, ट्रम्पेट और सेक्साफोन जैसे पश्चिमी वाद्यों का बड़ी सूझ-बूझ से इस्तेमाल किया गया। ‘ईना मीना डीका’ में उन्होंने रॉक एंड रॉल के रंग बिखेरे।
सिर्फ चौथी तक पढ़ाई
प्रयोगों से इतर सी. रामचंद्र भारतीय शास्त्रीय संगीत से कभी विमुख नहीं हुए। ‘जिंदगी प्यार की दो चार घड़ी होती है’, ‘धीरे से आ जा री अंखियन में’, ‘महफिल में जल उठी शमा परवाने के लिए’, ‘मोहब्बत ऐसी धड़कन है’, ‘ये जिंदगी उसी की है’ जैसे दर्जनों गीत सनद हैं कि सिर्फ चौथी क्लास तक पढ़े-लिखे सी. रामचंद्र की भारतीय रागों पर कितनी जबरदस्त पकड़ थी।
मेलॉडी के बादशाह
फिल्म संगीत में मेलॉडी (माधुर्य) के नजरिए से सी. रामचंद्र का वही ऊंचा मुकाम है, जो अनिल विस्वास, नौशाद, सचिन देव बर्मन और मदन मोहन का है। ‘धींगड़धांगड़’ वाले गानों में भी उन्होंने मेलॉडी का पुट रखा। ‘शोला जो भड़के’ में बांसुरी और आखिरी अंतरे से पहले लता मंगेशकर की तान की जो सजावट की गई है, रामचंद्र ही कर सकते थे। मेलॉडी का यह पुट फिल्म संगीत को उनकी खास देन है। वे खुद अच्छे गायक थे, लेकिन अपनी धुनों पर अपनी आवाज थोपने से बचते थे। ‘आजाद’ का एक गीत वे लता मंगेशकर और हेमंत कुमार की आवाज में रेकॉर्ड करना चाहते थे। हेमंत कुमार रेकॉर्डिंंग पर नहीं पहुंचे, तो यह गीत लता जी के साथ उन्होंने खुद गाया- ‘कितना हसीं है मौसम, कितना हसीं सफर है।’