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Makar Sankranti 2021 Special : मकर संक्रांति, पतंग और संगीतकार चित्रगुप्त

‘चली-चली रे पतंग मेरी चली रे’ की हर साल पर्व पर रहती है धूम
1991 में मकर संक्रांति पर ही चित्रगुप्त की सांसों का सफर थमा
अनगिनत लाजवाब धुनों के बावजूद मायानगरी में उपेक्षित रहे

मुंबईJan 13, 2021 / 11:19 pm

पवन राणा

-दिनेश ठाकुर
मकर संक्रांति ( Makar Sankranti ) से जिस तरह पतंगें जुड़ी हुई हैं, उसी तरह संगीतकार चित्रगुप्त ( Music Director Chitragupt) का नाम भी जुड़ा हुआ है। पर्व और पतंगों से उनका रिश्ता सुरीला भी है, रूहानी भी। हर साल मकर संक्रांति पर उनकी धुन वाला ‘चली-चली रे पतंग मेरी चली रे’ (भाभी) उत्साह-उमंग में नए रंग घोल देता है। पचास के दशक में इस गीत की लोकप्रियता के बाद चित्रगुप्त ने राजेंद्र कुमार- माला सिन्हा की ‘पतंग’ के लिए एक और पतंग-गीत रचा- ‘ये दुनिया पतंग नित बदले ये रंग, कोई जाने न उड़ाने वाला कौन है।’ अजीब संयोग है कि 14 जनवरी, 1991 को मकर संक्रांति पर ही चित्रगुप्त ने आखिरी सांस ली।

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स्टंट और धार्मिक फिल्में ज्यादा मिलीं
प्रतिभाशाली होने के बावजूद हिन्दी सिनेमा में उपेक्षित रहे संगीतकारों की अगर फेहरिस्त बनाई जाए, उसमें एक नाम चित्रगुप्त का भी होगा। पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र की प्रोफेसरी छोड़कर उन्होंने बड़े अरमान से मायानगरी में कदम रखा था। फिल्में तो मुसलसल मिलती रहीं, वैसी शोहरत नहीं मिली, जो उन्हें उस दौर के नामी संगीतकारों की लीग में शामिल कर देती। इसकी एक वजह यह भी रही कि कई साल तक वह अपनी धुनें बी या सी ग्रेड की स्टंट और धार्मिक फिल्मों में खर्च करते रहे। ‘भाभी’ (1957) में उनकी धुन वाले ‘चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना’ की अपार लोकप्रियता के बाद जरूर उन्हें बड़े बैनर्स की फिल्में मिलीं। लेकिन इनकी गिनती सीमित रही।

रूमानी गीतों में भी भक्ति के रंग
बाकायदा शास्त्रीय संगीत की तालीम लेकर फिल्मों में आए चित्रगुप्त के लिए संगीत इबादत था। वह बचपन से भक्ति संगीत के रसिया थे। उनके ‘जय-जय है जगदम्बे माता’ (गंगा की लहरें) और ‘तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो’ (मैं चुप रहूंगी) जैसे भजनों में सुर, स्वर, लय, सभी भक्ति में लीन महसूस होते हैं। भक्ति के यही रंग उन्होंने ‘हाय रे तेरे चंचल नैनवा’ (ऊंचे लोग), ‘दिल का दिया जलाके गया ये कौन मेरी अंगनाई में’ (आकाशदीप), ‘मचलती हुई हवा में छम-छम, हमारे संग-संग चलें’ (गंगा की लहरें), ‘इक रात में दो-दो चांद खिले’ (बरखा) और ‘दिल को लाख संभाला जी’ (गेस्ट हाउस) जैसे कई प्रेमिल गीतों में बिखेरे। आखिर प्रेम भी एक तरह की भक्ति ही है।

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लता-रफी के लिए रचीं सदाबहार धुनें
फिल्म संगीत की दो महान आवाजों लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी के सदाबहार गीतों की कोई फेहरिस्त चित्रगुप्त की धुनों के बगैर मुकम्मल नहीं हो सकती। लता मंगेशकर के लिए उन्होंने ‘तड़पाओगे, तड़पा लो’, ‘दीवाने हम दीवाने तुम’, ‘कब तक हुजूर रूठे रहोगे’ और ‘आज की रात नया चांद लेके आई है’, तो रफी के लिए ‘मुझे दर्दे-दिल का पता न था’, ‘जाग दिले-दीवाना’, ‘अगर दिल किसी से लगाया न होता’ जैसे कालजयी गीत रचे। ‘ये पर्वतों के दायरे’ और ‘तेरी दुनिया से दूर चले होके मजबूर’ में उन्होंने इन दोनों आवाजों की जुगलबंदी को नई बुलंदी अता की।

शांति, धैर्य और सुकून का संगीत
चित्रगुप्त ताउम्र खास शैली के संगीत का सृजन करते रहे। उनकी धुनों में शोर के लिए कोई जगह नहीं है। उनमें शांति है, धैर्य है, सुकून है और मुसलसल तरंगित होती लहरें हैं, जो हमें भावनाओं में बहा ले जाती हैं।

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