वर्ष 1871 में तत्कालीन आंतरदा रियासत में देवीसिंह की पत्नी जो जुन्या (टोंक) की राजकुमारी थी। उन्हें किसी सर्प ने डस लिया था। तब उन्हें जुन्या के दहेलवालजी की तांती (डस्सी) बांधी गई थी। बाद में आंतरदा के ठिकानेदार ने दरबार ने तेजादशमी पर रानी को तांती कटवाने जुन्या भेजा। उनके साथ गांव के लोक कलाकार भी गए। संगीत मंडली व दरबार की भावना को देखकर दहेलवालजी खुश हो गए। किवंदती के अनुसार तब आंतरदा में दहेलवालजी का थानक बनाया गया। उनको आंतरदा के लिए न्योता भेजा गया। स्वीकृति दी तो दहाडय़ा नामक स्थान पर वर्ष 1878 में स्थानक बनाया गया। तभी से आंतरदा में तेजादशमी के दिन देहरूपी सर्प के रूप में आने की परम्परा शुरू हो गई। इस परंपरा को करीब 142 साल हो गए।