मोहनीय कर्म के क्षय से चारित्र गुण। आयुष्य कर्म के क्षय से अक्षय स्थिति गुण। नाम कर्म के क्षय से अरूपी निरंजन गुण। गौत्रकर्म के क्षय से अगुरुलघु गुण और वीर्यांतराय के क्षय से अनंत वीर्य गुण प्रकट होता है। सिद्ध पद प्राप्त करने का इच्छुक साधक जहां भी जाता है, घुलमिल कर रहता है।
सबसे मैत्रीभाव रखता है, सरलता से जीवनयापन करता है। जो जीव सीधा होता है, वही सिद्धशिला की ओर जाता है, टेढ़ा चलने वाला बीच रास्ते में ही भटक जाता है। सीधा चलने वाला अपने घर यानी सिद्ध गति को प्राप्त हो जाता है। छोटा बालक जैसे माया से रहित होता है, वैसे ही सिद्ध पद के आराधक-साधक का जीवन भी सरल होता है। सिद्ध पद के आराधक के पास दुर्जन, दोषी दुराचारी, हिंसक जैसी प्रकृति के लोग आ भी जाए,तो भी वह उस पर दुर्भाव के भाव नहीं लाता है। क्षमापना का गुण पराये को भी अपना बना देता है।