– बच्चे देश के किस जिले के किस क्षेत्र में हैं और कैसा व्यवहार करते हैं
– बच्चे कहां हंै, घर के किस कमरे में कितनी देर हैं, स्क्रीन पर क्या कर रहे हैं
– कमरे में अकेले कितनी देर रहते हैं या फिर दोस्तों से क्या बात करते हैं
– क्लास के दौरान बच्चे क्या खाना पसंद करते हैं और कैसे बैठते हैं
– बच्चों के परिजन किस तरह की तकनीक या उत्पाद खरीदने की क्षमता रखते हैं
– मोबाइल के की-पैड की मैपिंग और की-बोर्ड की आवाज भी रिकॉर्ड की गई
रिपोर्ट के अनुसार कोरोना के दौरान बच्चों को वर्चुअल क्लास रूम तक पहुंचाने की जल्दबाजी में सरकारों ने इस बात की जांच तक नहीं की कि जिन तकनीकों या उत्पादों का प्रयोग स्कूलों में किया जा रहा है, वे सुरक्षित भी हैं या नहीं। बच्चों की निजता से खिलवाड़ महज इस लापरवाही का नतीजा है।
90 फीसदी ऐप्स को विज्ञापन-प्रौद्योगिकी कंपनियों को जानकारी भेजने के लिए डिजाइन किया गया। इनमें से 60 फीसदी डेटा थर्ड पार्टी को भेजा गया। फेसबुक और गूगल पर डेटा साझा किए गए, जिसकी जांच हो रही है। ऐप्स में कैमरों, संपर्कों या स्थानों तक पहुंच का अनुरोध तब किया जाता था बच्चे कार्य सबमिट कर रहे होते थे।
ऑनलाइन क्लासस के दौरान ज्यादातर प्लैटफॉर्म बच्चों के डेटा को विज्ञापन तकनीकों को उपलब्ध करवा रहे थे। ऐसा करके बच्चों को व्यवहार आधारित विज्ञापनों की दायरे में लाया गया और बहुत से मामलों में ऐसे विज्ञापन बच्चों को दिखाए भी गए। ऐप्स ने डेटा को ट्रैक करने के लिए बच्चों की आईडी को भी कॉपी किया।
यह बात सही है कि डेटा की पूरी जानकारी ऐप कंपनी को होती है और डेटा थर्ड पार्टी तक भी पहुंच जाता है। देश में डेटा प्रोटेक्शन कानून बनने तक सावधानी ही बचाव है। बेहतर होगा कि स्मार्टफोन का इस्तेमाल स्मार्ट तरीके से किया जाए और ऐप्स डाउनलोड करते वक्त पॉलिसी ध्यान से पढ़ें। हालांकि ऐप कंपनियां भी स्मार्ट हैं वह फ्री में कोई चीज नहीं देतीं और नए हथकंडे डेटा चुरा ही लेती है।
– वी. राजेन्द्रन, चेयरमैन, डिजीटल सेक्योरिटी एसोसिएशन ऑफ इंडिया, चेन्नई