शायद यही वजह थी कि जयललिता की अगुवाई में लड़ा गया २०१६ का विधानसभा चुनाव पार्टी बड़ी आसानी से जीत गई। अब जब दस साल बाद सत्ता बदली है तो बदलाव जायज है। परिवर्तन की शुरुआत पूर्ववर्ती सरकार की योजनाओं को रोकने और नाम बदलने से होती है। तमिलनाडु भी फिलहाल उसी मोड़ पर है। शुुरुआत जयललिता विश्वविद्यालय के विलय से की जा रही है। इस विवि को अन्नाद्रमुक शासन के अंतिम सालों में खोलने की घोषणा हुई थी जिसे डीएमके बंद करने जा रही है। सूबे के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और उच्च शिक्षा मंत्री के. पोन्मुड़ी ने इस आशय की घोषणा कर दी है कि इसका विलय अण्णामलै विवि में किया जाएगा। इसको लेकर हो-हल्ला और वॉक आउट हुआ। यह सब लोकतंत्र का स्टंट है।
यादें ज्यादा पुरानी नहीं हुई हंै जब स्वर्गीय जे. जयललिता ने करोड़ों की लागत से निर्मित नया विधानसभा और सचिवालय परिसर मल्टी स्पेशलिटी अस्पताल में तब्दील कर दिया था। वजह केवल यही थी कि इसका निर्माण डीएमके अध्यक्ष रहे स्वर्गीय एम. करुणानिधि ने कराया था। परिसर में उनकी मूर्ति भी थी जो उनको नागवार थी। जब वहां मूर्ति नकारी गई तो यहां द्रमुक ने उनके नाम को ही ठुकरा दिया। जैसा को तैसे की राजनीति तमिलनाडु में काफी अरसों से चली आ रही है।
अब अगली बारी शायद अम्मा कैंटीन की है। यह कैंटीन सस्ती दर पर भोजन उपलब्ध कराती है और करोड़ों लोगों को अब तक इसका लाभ मिला है। कोरोनाकाल में जब रेस्तरां बंद पड़े थे तब इसका खूब फायदा दिहाड़ी और गरीब तबके को मिला। यह जयललिता सरकार की बड़ी ब्रांडिंग थी जिससे उनको खूब वाहवाही मिली। अब डीएमके सरकार के पक्ष में यह तो नहीं होगा कि इस कैंटीन को बंद कर दिया जाए लेकिन नाम तो सौ फीसदी बदलेगा। शायद इसका नामकरण ‘अण्णाÓ कैंटीन कर दिया जाए।
द्वेषवश किए जाने वाले इस तरह के आचरण का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर डीएमके शासन की कोटूरपुरम लाइब्रेरी १० सालों तक उपेक्षा का शिकार रही जो लाखों विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं के काम आ सकती थी। ऐसे कई उद्धरण और मिसालें हैं जहां दो दलों की राजनीतिक टसल के बीच जनता फंसी। विल्लपुरम की जयललिता विवि का मामला भी ऐसा ही है। सत्तासीन पार्टियोंं को अहं और प्रतिशोध की भावनाओं को ताक में रखकर जनहित की भावन को सर्वाेपरि रखना चाहिए ताकि ऐसे विवादों में समय जायर नहीं हो।