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छतरपुर

विलुप्त हो रही दरवाजे पर कील ठुकवाने व सुराती बनवाने की परंपरा

घर से बलाओं को दूर रखने की मान्यता के चलते लोहे की कील ठुकराने की है परंपराआधुनिकता सजावटी सामान के इस्तेमाल का बढ़ गया है चलन

छतरपुरOct 20, 2019 / 08:09 pm

Dharmendra Singh

Extinct tradition

Extinct tradition

छतरपुर। बुंदेलखंड में तीज-त्योहारों की सदियों से चली आ रहीं परंपराएं अब विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी हैं। इन्हीं में से एक है दीपावली पर घर की चौखट पर कील ठुकवाने की परंपरा, जो अब पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी है। इसके अलावा दीवार पर बनाई जाने वाली लक्ष्मी विष्णु की प्रतीक मानी जाने वाली सुराती की परंपरा को न केवल शहरों में बल्कि अब गांवों में भी लोग भूलते जा रहे हैं। दीपावली के त्योहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं। इन्हीं में से एक घर की चौखट पर कील ठुकवाने की है। इसके पीछे मान्यता थी कि दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने से साल भर बलाएं घर में प्रवेश नहीं कर पातीं।
दरवाजे पर कील ठुकवाने की परंपरा
बुंदेलखंड संस्कृति के जानकार सुरेंद्र शर्मा शिरीष के मुताबिक कील ठुकवाना दीपावली पर लोहे को सम्मान देना है। लोहे से कृषि यंत्रों का निर्माण होता है। दीपावली के बाद रबी की फसल की बुवाई शुरू होती है, जिसमें ये यंत्र काम आते हैं। कील ठुकवाने की ये परंपरा अब गांवों में भी यदा-कदा ही देखने को मिलती है। वहीं, दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा भी अब बीते कल की बात होती जा रही है। नई पीढ़ी इसे बनाना भी नहीं जानती है। ये केवल पुरानी पीढ़ी तक सिमट कर रह गई है। दरअसल गांवों में जलसंकट और बेरोजगारी की समस्या के कारण तेजी से बुंदेलखंड के गांवों पलायन बढ़ा है। इस कारण गांवों में लोग रहते ही नहीं है। त्योहारों के समय आते तो हैं लेकिन परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं।
ये है सुराती
बुंदेली लोक कलाविद मालती श्रीवास्तव ने बताया कि सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाए जाने की भी परंपरा है, लेकिन अब ये कम ही नजर आती है।
हाथ से बनाए जाते थे पाना
दीपावली पर बुंदेलखंड के गांवों में हाथ से बने लक्ष्मी-गणेश के चित्र या फिर हाथ की बनी मिट्टी की मूर्तियों की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में पाना कहा जाता है। यह चितेरी कला का हिस्सा है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है। लेकिन समय के साथ लोग इस परंपरा को भी भूल गए। कलाविद् बद्री चौबे का कहना है कि आधुनिक सजावटी सामान और पोस्टर, तस्वीर व प्लास्टिक अथवा पीओपी से बनी प्रतिमाएं ही लोगों के घरों में दीपावली पर दिखाई देते हैं। परंपरागत लोक कला अब भुलाई जा रही है।

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