होली के दिन इस क्षेत्र में निवासरत पुरुष की टोली ढोल-बाजे के साथ निकलती है। टोली गांव के हर घर जाती है और गाना-बजाना होता है। सभी लोग एक दूसरे से मस्ती मजाक करते हैं। अबीर-गुलाल एवं रंग भी लगाते हैं और फगुआ लेकर आगे बढ़ जाते हैं। वहीं महिलाओं की टोली हाथ में तिलक वाली थाल लेकर घर-घर जाती हैं। फगुआ के गीत गाती हैं और फिर आगे बढ़ जाती है। एक-एक घर जाने के बाद वह गांव के एक छोर पर खड़े होकर आने-जाने वालों को रोकती हैं, उनके साथ हंसी-ठिठोली करती हैं और तिलक लगाकर फगुआ लेती हैं।
वर्ष 2019 में कोरोना संक्रमण के चलते परंपरा का स्वरूप बदल गया था। लोगों ने प्रतिकात्मक तौर पर होली पर्व मनाया था। हालांकि सालों पुरानी परंपरा लोगों के आकर्षण का केंद्र रहती है। यहां पुरुष और महिलाएं होली के दिन परंपरा मानते हुए एक साथ बैठकर हाथों से बनाई हुई महुआ की कच्ची शराब पीते हैं।
क्षेत्र में समय बीतने के साथ परंपराएं पहले जैसी नहीं रही हैं, लेकिन बुजुर्ग लोग अभी तक इस प्रकार की परंपराओं का निर्वहन कर रहे हैं। वहीं क्षेत्र के कसोतिया, चिमटीपुर, सिदोली, खुर्सीढाना, सालीवाड़ा, मरकाढाना गांव में भारिया आदिवासी लोग आज भी प्राकृतिक होली खेलते हैं। टेसू के फूल से रंग बनाकर बांस की पिचकारी में भरकर लोगों पर छिडक़ते हैं। वहीं चेहरों पर पीली मिटटी लगाते हैं।