किसी भी तरह का निर्माण किया जाना हो या फिर सुधार कार्य, सीमेंट, रेत गिट्टी और मिट्टी का ही उपयोग होता है। यह सबकुछ वर्तमान और आधुनिक युग की देन है, लेकिन देवगढ़ की बावडिय़ों को बचाने के लिए इन सब सामग्रियों का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। आम तौर पर मसाला बनाने के लिए मशीन का उपयोग किया जाता है या फिर कुछ लोग मिलकर हाथों से तैयार करते हैं, लेकिन बावडिय़ों के लिए मसाला बनाने का काम गोवंश बैल कर रहे। पारम्परिक पद्धाति को अपनाया गया है। करीब एक माह की मशक्कत के बाद प्रशासनिक अमला इस मुकाम पर पहुंचा है, कि बावडिय़ों को पुरानी ही शक्ल दें सकें। छिंदवाड़ा ही नहीं मप्र के इतिहास में भी शायद यह पहला मौका होगा जब ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए कुछ इस तरह काम किया जा रहा। तैयार मसाले का उपयोग बावडिय़ों के क्षतिग्रस्त हिस्सों में किया जाएगा। बावडिय़ां बनाई गई तब भी इसी पद्धाति को अपनाने के प्रमाण मिले। कहा जा रहा है कि सीमेंट, गिट्टी और रेत के मसाले से कहीं ज्यादा मजबूत और टिकाउ भी होता है।
इन सामग्रियों का किया जा रहा इस्तेमाल
मोहखेड़ के सहायक यंत्री शिव सिंह बघेल ने बताया कि बावडिय़ों के क्षतिग्रस्त हिस्सों में जुड़ाई के लिए गुरुवार से मसाला तैयार करना शुरू किया गया है। एक ट्रक चूने को पहले जमीन में बनाए गए गड्डे में पकाया गया। चार प्लॉस्टिक के ड्रम में पचास-पचास लीटर पानी डाला गया। पचास किलो गुड़, तीस किलो बेल, दस किलो उड़द पिसी हुई और दस किलो गोंद अलग-अलग ड्रम में डाल दिया। एक टांके में एक भाग चूना, एक भाग सुरगी (ईंट चूरा) दो भाग रेत मिलाकर उसमें चौदह दिन बाद ड्रमों से निकाले गए दो सौ लीटर पानी जरूरत के मुताबिक डालकर मिलाया। इस मसाले को एक गोल आकार के बने टांके में डाला और उस पर सिवनी से लाए गए गोल पत्थर को दो बैल के माध्यम से 180 चक्कर घुमाया गया। इस तरह बावड़ी में जुड़ाई के लिए मसाला तैयार हुआ है।
बचा रहेगा मूल रूप
इस पद्धति का इस्तेमाल करने की पीछे की सबसे बड़ी वजह केवल बावडिय़ों के मूल रूप को बचाना और मजबूती देना है। संरक्षण हैरिटेज कन्जर्वेशन कंसलटेंट नई दिल्ली की टीम ने जांच के दौरान बताया था कि बावडिय़ों में इसी पद्धाति से तैयार मसाले का इस्तेमाल हुआ है।
-गजेन्द्र सिंह नागेश, सीइओ जिला पंचायत, छिंदवाड़ा