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चित्रकूट

दर्द मेहनतकशों का: काश सिस्टम ने छला न होता तो अपनी मिट्टी से ये पलायन न होता

आज जब स्थानीय कामगारों का लौटना जारी है तो इसी उदासीनता की तस्वीर फिर एक बार सिस्टम से सवाल कर रही है.

चित्रकूटMay 19, 2020 / 02:35 pm

Neeraj Patel

दर्द मेहनतकशों का: काश सिस्टम ने छला न होता तो अपनी मिट्टी से ये पलायन न होता

दर्द मेहनतकशों का: काश सिस्टम ने छला न होता तो अपनी मिट्टी से ये पलायन न होता

चित्रकूट: आजादी के बाद अपने अपने हिंसाब से एक नए भारत के निर्माण का सपना लेकर शुरू हुई सियासत ने आज तक अपना हित तो खूब साधा लेकिन सपनों के रथ के अश्वों को कोई दिशा आज तक नहीं मिल पाई. परिणाम पलायन बेरोजगारी भुखमरी के विभत्स रूप में आज इस कोरोना काल में सिस्टम के सामने है. सड़कों पर असंख्य कामगारों की भीड़ व्यवस्था के रहनुमाओं से शायद यही सवाल कर रही है कि यदि उनके जीवकोपार्जन की व्यवस्था उन्ही के इलाके में कई गई होती तो वे अपनी मिट्टी को छोड़कर अनायास ही पलायन न करते. बतौर उदाहरण बात यदि बुन्देलखण्ड कि की जाए तो यहां पर तो जिम्मेदारों ने सियासत की बिसात पर वो गोटी बैठाई कि जिसका खामियाजा आज तक ये इलाका भुगत रहा है. आज जब स्थानीय कामगारों का लौटना जारी है तो इसी उदासीनता की तस्वीर फिर एक बार सिस्टम से सवाल कर रही है कि ये पलायन कब रुकेगा कब अपने ही आंगन में दो वक्त की रोटी मिलेगी?
उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड के सातों जनपदों(चित्रकूट, बांदा, हमीरपुर, महोबा, झांसी, जालौन, ललितपुर) में कोई ऐसा बड़ा उद्योग व रोजगार का साधन नहीं जो बुंदेलों के पलायन को रोक सके. परिणामतः आज इस इलाके के कई गांव इसलिए सन्नाटे में सांस ले रहे हैं कि उनके आंगन में खेलने वाले युवा अन्य प्रदेशों जनपदों में दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं.

आंसू बहा रही बांदा की कताई मिल


कभी रोजगार का उजियारा लेकर आई बांदा कताई मिल आज एक खंडहर के रूप में तब्दील होने को अग्रसर है. 80 व 90 के दशक में इस कताई मिल के जरिए हजारों लोगों के घरों में चूल्हा जलता था लेकिन आर्थिक समस्या से जूझते हुए इस कताई मिल ने दम तोड़ दिया और हजारों परिवार बेरोजगार हो गए. नतीजतन पलायन की पगडंडी पकड़ न जाने कितने परिवार बाहर चले गए. इस कताई मिल से कभी नेपाल व चाइना तक सुपर कॉटन का निर्यात होता था. लगभग 350 बीघे में फैली ये कताई मिल अब वीरान है. हर बार सियासी नुमाईंदों ने वादे तो किए परंतु नतीजा सिफर ही रहा. तत्कालीन सरकारों ने भी कोई सजगता नहीं दिखाई इस मुद्दे को लेकर.
शुरू होने से पहले ही उजड़ गई एशिया की सबसे बड़ी ग्लास फ़ैक्ट्री


आज यदि चित्रकूट स्थित एशिया की सबसे बड़ी बरगढ़ ग्लास फ़ैक्ट्री चालू होती तो शायद बुन्देलखण्ड की किस्मत खुद पर इतरा रही होती. सन 1987 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा इस फ़ैक्ट्री का शिलान्यास किया गया था. फ़ैक्ट्री के कर्मचारियों के लिए कॉलोनी आवास आदि का निर्माण भी किया गया. फ़ैक्ट्री के लिए देश व विदेश के कई उद्योगपतियों ने निवेश किया था. 1991 तक लगभग 50 प्रतिशत काम पूरा हुआ था कि शेयर धारकों की आपसी खींचतान ने फ़ैक्ट्री निर्माण कार्य में अवरोध उत्पन्न कर दिया और काम पूरी तरह से बंद हो गया. मामला आज भी कोर्ट में चल रहा है. लाखों करोड़ों के विदेश से मंगाए गए उपकरण आज जंग खाकर बदहाली पर आंसू बहा रहे हैं.

पाठा को भी छला गया


बुन्देलखण्ड के चित्रकूट जनपद का पाठा क्षेत्र जो अपनी प्राकृतिक खूबसूरती व बीहड़ों के लिए जाना जाता है उसे भी सियासत ने जमकर छला वादों ने खूब ठेंगा दिखाया. पाठा के मानिकपुर क्षेत्र में बॉक्साइट फ़ैक्ट्री स्थापित की गई. फ़ैक्ट्री के लिए कच्चे माल की सप्लाई मानिकपुर से ही होती थी. हजारों ग्रामीण आदिवासियों को इसके माध्यम से दैनिक रोजगार मिलता था लेकिन अनियमितताओं के चलते यह फ़ैक्ट्री भी बंद हो गई. पाठा के कई गांव आज पलायन के कारण सन्नाटे में हैं.
पलायन के इस संदर्भ में भाजपा सांसद आरके सिंह पटेल का कहना है कि बेरोजगारी बुंदेलखंड की बदहाली की सबसे बड़ी समस्या है। पूर्ववर्ती सरकारों की उपेक्षा के चलते इस इलाके का औद्योगिक विकास नहीं हो पाया। लेकिन अब उनकी सरकार बुंदेलखंड के विकास को लेकर संजीदा है। बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे डिफेन्स कॉरिडोर जैसी योजनाएं इसका उदाहरण हैं। बंद पड़ी फैक्ट्रियों को भी चालू करने की मांग की गई है।
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