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चुरू

आखिर अब कैसे याद आई एफआईआर

सरदारशहर सीएचसी पर नसबंदी शिविर के दौरान महिला की मौत मामले में परत-दर-परत विभाग की कारगुजारियों और लापरवाही की लगई खुलने का सिलसिला जारी है।

चुरूAug 10, 2020 / 08:56 am

Madhusudan Sharma

आखिर अब कैसे याद आई एफआईआर

आखिर अब कैसे याद आई एफआईआर

चूरू. सरदारशहर सीएचसी पर नसबंदी शिविर के दौरान महिला की मौत मामले में परत-दर-परत विभाग की कारगुजारियों और लापरवाही की लगई खुलने का सिलसिला जारी है। उपनेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने विधानसभा के आगामी सत्र में इस संबंध में अतारांकित प्रश्न क्या लगाया कि कुंभकर्णी नींद सोया प्रशासन जैसे अचानक ही जाग उठा। गुजरे 24 घंटे के दौरान ताबड़तोड़ कार्रवाई का दौर जारी है। विभागीय तौर पर कागजों की दौड़ एकाएक तेज हो गई है। इसी कड़ी में शनिवार को चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग की ओर से जारी एक आदेश ने विभाग की कार्यशैली की तो जैसे पोल ही खोल कर रख दी। दरअसल, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग की ओर से जारी इस आदेश में सीएचसी प्रभारी को एक तरह से आदेश दिए गए हैं कि वह कैंप की आयोजक एनजीओ, उसके सचिव, संबंधित सर्जन या नसबंदी करने वाली टीम के अन्य सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कराएं। लगभग 40 दिन बाद चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग की इसी कार्रवाई को लेकर सवाल उठ रहे हैं।

…तो 40 दिन का इंतजार क्यों!
गत 30 जून को नसबंदी शिविर में हादसा हो जाने के बाद मौके से एनजीओ की टीम के फरार हो जाने और अपने साथ ही अन्य दस्तावेज समेट ले जाने के बाद अगले दिन ही तत्कालीन कलक्टर संदेश नायक ने सीएमएचओ डॉ. भंवरलाल सर्वा को एक कार्यक्रम में आमना-सामना होते ही यह निर्देश दिया था कि संबंधित एनजीओ के खिलाफ पीडि़त पक्ष के अलावा एक आपराधिक मामला स्वास्थ्य विभाग की ओर से भी दर्ज कराना चाहिए। उस कथन के अगले कुछ ही घंटों में तत्कालीन कलक्टर का तबादला हो गया, उसके बाद नए कलक्टर प्रदीप के गावंडे ने चार्ज लिया। चार्ज लेने के तुरंत बाद ही मौजूदा कलक्टर ने भी अपनी पहली ही प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बारे में पूछे जाने पर जवाब दिया था कि वे इस मामले को दिखवाएंगे और जैसे ही जांच कमेटी की रिपोर्ट उन्हें मिलेगी, वे तुरंत ही कार्रवाई शुरू करा देंगे।

सबूतों से छेड़छाड़ करता रहा एनजीओ
नसबंदी शिविर को करीब 40 दिन गुजर चुके हैं। उस दौरान ऐसी कई बातें सामने आई थीं, जिनको लेकर जब भी चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग के अफसरों से बात की गई, उन्होंने अनभिज्ञता में अपने हाथखड़े कर दिए। मसलन जब भी विभाग से पूछा गया कि शिविर में नसबंदी करने वाला सर्जन कौन था, सीएमएचओ, बीसीएमओ से लेकर सीएचसी प्रभारी और स्वास्थ्य विभाग के संबंधित कर्मचारियों का एक ही जवाब होता था कि उन्हें नहीं पता कि कौन सर्जन नसबंदी ऑपरेशन के लिए नियुक्त था। बीच में सीएमएचओ डॉ. सर्वा की तरफ से एक तथ्य यह भी सामने लाया गया कि संबंधित एनजीओ ने सर्जन की टीम में कुछ बदलाव करने का एक आवेदन भी डाला था, लेकिन कोरोना संक्रमण के दौर के चलते हो गए लॉकडाउन और अन्य कारणों से वह प्रस्ताव समिति की बैठक में पेश नहीं हो सका था।

क्या मिलेंगे इन सवालों के जवाब
दरअसल, जांच कमेटी की रिपोर्ट में सभी की निगाह जवाबदेही को लेकर रिपोर्ट में उठाए गए बिंदुओं पर होगी। पर्यवेक्षण, संवादहीनता, व्यावहारिक तालमेल की कमी चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग में सीएचसी स्तर से लेकर सीएमएचओ स्तर तक साफ दिखाई देती है। संबंधितों के बयानों में विरोधाभास भी एक गंभीर मसला है, जिसमें सीएचसी स्तर से उठी बात काफी संजीदा सवाल खड़े करती है, जिसमें यह कहा गया कि उन्होंने तो रजिस्ट्रेशन समेत दूसरी व्यवस्थाओं के पर्यवेक्षण की कोशिश की, लेकिन संबंधित एनजीओ ने उन्हें एडि. सीएमएचओ से फोन पर बात करा कर उन्हें इस प्रक्रिया से भी दूर कर दिया, जबकि उन्होंने बाकायदा आदेश जारी कर ऊपर तक इस व्यवस्था से अवगत करा दिया था।

किस पर गिरेगी गाज!
पूरे मामले में विभागीय लापरवाही साफ नजर आती है, लेकिन गाज किस पर गिरेगी, इसको लेकर करीब 40 दिन से ही कयासों के दौर चल रहे हैं। ऐसी हालत में जब पर्यवेक्षण को लेकर किसी भी तरह का चेक बैरियर किसी भी स्तर पर नहीं था, तो क्या समूचा तंत्र ही सवालों के घेरे में नहीं है, यह सवाल आम जन के जेहन में गहरे तक बैठा है। उपनेता प्रतिपक्ष ने भी विभागीय तंत्र की इसी असफलता और लापरवाही को अपने प्रश्न का आधार बनाया है, जैसा कि उन्होंने पत्रिका से बातचीत के दौरान स्पष्ट किया।

जांच कमेटी भी रही सवालों के घेरे में
हादसे के बाद तत्कालीन कलक्टर संदेश नायक ने सीईओ आर.एस चौहान के पर्यवेक्षण में चार सदस्यीय एक जांच दल का गठन किया था। आरसीएचओ डॉ. सुनील जांदू, जनरल सर्जन डॉ. शंकर सिंह गौड़, एनस्थीसिया विशेषज्ञ डॉ. प्रमोद अग्रवाल और स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. नूतन की चार सदस्यीय कमेटी की पहली रिपोर्ट कलक्टर प्रदीप के गावंडे ने किसी निश्चित निष्कर्ष के अभाव में खारिज कर दी। बताया जाता है कि कमेटी ने इसके पीछे संबंधित दस्तावेजों की उपलब्धता न हो पाने की वजह जाहिर की थी। इसमें केस फाइल प्रमुख थी। इसी दौरान प्रभारी सचिव नीरज के पवन की समीक्षा बैठक हुई, जिसमें उपनेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने कड़ा रुख अपनाया, जिस पर प्रभारी सचिव ने एक सप्ताह में कार्रवाई की बात कही। इसी के बाद केस फाइल एनजीओ की ओर से उपलब्ध कराई गई और जांच रिपोर्ट कथित तौर पर मुकम्मल हुई और सीईओ को सौंपी गई। सीईओ सोमवार को यह रिपोर्ट कलक्टर को सौंपेंगे।

सवाल जो मांगते हैं जवाब
– एमओयू के समय ही यह
स्पष्ट होना चाहिए कि कौन से एनजीओ की कौन सी टीम नसबंदी शिविर को संपन्न कराने के लिए अधिकृत होगी।
– शिविर में हादसा हो जाने के
बाद अगले 15 दिन तक विभाग
के किसी भी अफसर के पास शिविर में मौजूद सर्जन का नाम पता नहीं होना।
– लगभग एक महीने बाद
आधी-अधूरी भरी गई और
संदेहों से युक्त केस कार्ड (केस फाइल) का संबंधित जांच कमेटी तक पहुंच पाना।
– दस्तावेजों का पूरे एक महीने तक गायब बने रहना।
– फाइलों में साफ-तौर पर काट-छांट और विवरणों के भरने में कमियों का परिलक्षित होना।
– इस पूरी अवधि में पीडि़त पक्ष के अलावा विभाग की तरफ से एनजीओ को सबूतों को
खुर्द-बुर्द करने के लिए पूरी छूट देते हुए किसी तरह की एफआइआर न करवाना।
– विभाग में सीएमएचओ से लेकर बीसीएमओ, सीएचसी प्रभारी तक के बीच कागजी घोड़ों का दौडऩा, लेकिन दस्तावेजों को लेकर एनजीओ पर दबाव बनाने
को लेकर हीलाहवाली का रुख अपनाए रखना।
– जून माह के पहले ही शिविर में कोरोना संक्रमण काल के
चलते निर्धारित 10 नसबंदी शिविर की पाबंदी के बावजूद लगभग दोगुने केस करने पर भी कोई टोका-टाकी न करना।
– नतीजे में महीने के अंतिम
शिविर के आते-आते 8 0 रजिस्ट्रेशन हो जाना और
उच्च स्तर पर लीपापोती करते हुए फिर भी लीपापोती का रुख
अपनाए रखना।

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