अक्तूबर 1959 में पुरालेख विशेषज्ञ डॉ डीसी सरकार ने जागेश्वर पहुंचकर यहां के प्राचीन शिलालेखों और दीवारों पर उत्कीर्ण लिपि की कॉपी की थी। उसके बाद उन्होंने इसका ट्रांसलेशन भी कर दिया था। ये ट्रांसलेशन एपिग्राफी इंडिका पुस्तक में प्रकाशित है। अब करीब छह छह दशक बाद ये जानकारी सामने आई है।
शिलालेखों में उत्कीर्ण लिपि के अनुवाद से ये स्पष्ट हो गया है कि मृत्युंजय मंदिर के मंडप की 13वीं सदी में मरम्मत हुई थी। एक शिलालेख में लिखा है कि मंडप मरम्मत का कार्य श्री कुमाद्रि में तुलाराम की पत्नी ने कराया था। मरम्मत कार्य नारायण के पुत्र कृष्णदास के छोटे ने भाई किया था। यहां पर कुमाद्रि का अर्थ कुर्मांचल से भी लगाया जा सकता है।
अनुवाद में सामने आया है कि मृत्युंजय मंदिर के मंडप के पहले शिलालेख में दो प्रकार के विवरण शामिल हैं। पहला विवरण खंडित हो चुका है। वहीं दूसरे विवरण में देवताओं, बैद्यनाथ और सोमनाथ की दैनिक पूजा के लिए विभिन्न वस्तुओं के उपहार को दर्ज किया गया है। ये शिलालेख 13वीं सदी में लिखा गया था। इससे ये प्रतीत होता है कि हजार साल पहले जागेश्वर के संबंध देश के प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग वैद्यनाथ और सोमनाथ से भी होंगे।
मृत्युंजय मंदिर के तीसरे शिलालेख में उदयपाल देव (लखन) और पालदेव आदि की ओर से भगवान वैद्यनाथ की दैनिक पूजा के लिए विभिन्न प्रकृति के कुछ उपहार देने की बात दर्ज की गई है। यह शिलालेख भी 13वीं सदी में लिखा गया है। शिलालेख संरक्षण की दृष्टि से पुरातात्विक संग्रहालय में रखे गए हैं।
लिपि के अनुवाद से ये भी खुलासा हुआ है कि करीब हजार साल पहले देश विदेश के लोग असमर्थ होने पर अपने स्थान पर किसी प्रतिनिधि को अपने खर्चे पर जागेश्वर धाम भेजा करते थे। इसके पीछे वजह ये मानी जा रही है कि वह लोग प्रतिनिधि के जरिए मिले पुण्य का हिस्सेदार खुद को भी मानते थे।
एक पुरालेखों के ट्रांसलेशन में ये खुलासा हुआ है कि पूर्व देश के जेजेस्सा नाम के एक व्यक्ति पर यहां शिलालेख उत्कीर्ण करने की जिम्मेदारी थी। इस शिलालेख को पूर्व देश के प्रभुदत्त ने लिखा था। शिलालेख स्थापित करने के लिए भंडा, चंगा, खड्गा, अनर्थ और अर्जजाना नाम के पांच व्यक्ति यहां पहुंचे थे। पूर्व देश का अर्थ पश्चिम बंगाल भी हो सकता है।
शिलालेखों में विजेंद्री मालयोगिन का नाम भी दर्ज है, जिन्हें भट्टारक कहा जाता है। विभाग के पास शैव सन्यासियों के भट्टारक के रूप में अन्य उदाहरण भी हैं। मोक्ष के लिए भी पहुंचते थे लोग
एक शिलालेख में अघोरशिव उर्फ विषनिर्घाट का नाम भी उत्कीर्ण है। एपिग्राफी शाखा ने अघोरशिव को शैव सन्यासी माना है। वह जीवन समाप्त करने की इच्छा से जागेश्वर में नंदा भगवती के द्वार आए हुए थे।
शिलालेखों में रापाविग्रह, सुजुमा के पुत्र शंकरगण और रणविग्रह, सूत्रकार कल्याण के नाम और कई स्थानों पर राजन, श्री और अन्य उपाधियां भी उत्कीर्ण हैं। ये स्पष्ट हो गया है कि दीवारों पर अपना नाम लिखवाने वाले तीर्थ यात्री ही हुआ करते थे।
एएसआई के सहायक अधीक्षण पुरातत्वविद केबी शर्मा ने बताया कि एएएसआई ने कुछ समय पूर्व जागेश्वर मंदिर के शिलालेखों के अनुवाद को लेकर एपिग्राफी शाखा को पत्र भेजा था।वहां से जानकारी मिली है कि इसका अनुवाद 1960 के दशक में डॉ डीसी सरकार कर चुके हैं। केबी शर्मा के मुताबिक शिलालेखों में और भी शोध की जरूरत है। उसके बाद इनका ट्रांसलेशन लोगों के लिए डिस्पले किया जाएगा।