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रोग और उपचार

आनुवांशिक विकारों का पता लगाने में कारगर है जेनेटिक टेस्टिंग

जेनेटिक टेस्टिंग (आनुवांशिक परीक्षण) की मदद से इस बात का पता चलता है कि आपकी जीन में कुछ खास किस्म की असमान्यताओं एवं विकारों से ग्रस्त होने का खतरा कितना अधिक है।

Jul 10, 2018 / 05:03 pm

जमील खान

Genetic Disorder

Genetic testing

जेनेटिक टेस्टिंग (आनुवांशिक परीक्षण) की मदद से इस बात का पता चलता है कि आपकी जीन में कुछ खास किस्म की असमान्यताओं एवं विकारों से ग्रस्त होने का खतरा कितना अधिक है। इस परीक्षण के जरिए आनुवांशिक विकारों की पहचान करने के लिए रक्त या शरीर के कुछ ऊतकों के छोटे नमूने का विश्लेषण करके गुणसूत्र, जीन और प्रोटीन की संरचना में परिवर्तन की पहचान की जा सकती है। पिछले दो से तीन वर्षों से जेनेटिक टेस्टिंग का क्रेज बढ़ रहा है। अब अधिक से अधिक लोग जीन परीक्षण कराने के लिए आगे आ रहे हैं।

इस तकनीक में यदि परीक्षणों से प्राप्त परिणाम निगेटिव आते हैं तो यह रोगियों के लिए एक बड़ी राहत है। लेकिन, अगर कम उम्र में ही आनुवांशिक अंतर की पहचान की जाती है, तो जांच के परिणाम के आधार पर आगामी स्थिति की रोकथाम के लिए निर्णय लेने के लिए लोगों के पास पर्याप्त समय होता है। जांच के परिणाम से शुरुआती उपचार विकल्पों का चयन करने में मदद मिलती है, जिससे जीवन की गुणवत्ता और व्यक्ति के जीवन प्रत्याशा पर बड़े पैमाने पर प्रभाव पड़ सकते हैं।

नवजात शिशुओं में आनुवंशिक जांच की सुविधा के उपलब्ध होने से, कई माता-पिता अपने नवजात शिशु में असामान्य विकारों या स्थितियों का शुरुआती चरण में ही पहचान कर सकते हैं, जिससे शुरुआत से ही बेहतर उपचार विकल्प अपनाने में मदद मिलती है। कोई विषेश विकार किसी व्यक्ति या किसी परिवार को किस प्रकार प्रभावित करता है, इसके बारे में अधिक जानने के लिए जीन और आनुवांशिकी के बारे में नई जानकारी पता लगाने के लिए इस शोध परीक्षण और क्लिनिकल परीक्षण को इजाद किया गया है।

यूनिसेफ की 2015-16 की रिपोर्टों के मुताबिक, भारत में पांच साल से कम आयु के बच्चों की वार्षिक मृत्यु दर दुनिया में सबसे ज्यादा 14 लाख है। इनमें से 10 प्रतिशत से अधिक जन्मजात विकृतियों और गुणसूत्र असामान्यताओं के मामले होते हैं। हालांकि, आनुवांशिक परीक्षण मुख्य रूप से क्लिनिकल निदान के रूप में किया जाता है, लेकिन इसके दूसरे लाभों में जीन वाहकों के पूवार्नुमान और उनकी पहचान शामिल है। 35 साल की उम्र के बाद गर्भधारण करने वाली महिलाओं को ऐसी असामान्यताओं और विकारों वाले बच्चों को जन्म देने का अधिक खतरा होता है।

जिस तरह से जीन बच्चे की त्वचा के रंग और बालों और आंखों के बनावट को प्रभावित करने के लिए जिम्मेदार होते हैं, उसी प्रकार से यह विभिन्न जन्म दोषों को भी प्रभावित करता है। इसलिए गर्भवती महिलाओं को पहले और दूसरे तिमाही में सभी संभावित जेनेटिक स्क्रीनिंग परीक्षण कराने की सलाह दी जाती है। यह उनके विकसित हो रहे भ्रूण में संभावित समस्याओं के खतरे का मूल्यांकन करने के लिए सहायक साबित होगा।

पहचान किए जाने वाले सबसे आम दोषों में डाउन सिंड्रोम, स्पाइन डिफेक्ट, सिकल सेल एनीमिया और सिस्टिक फाइब्रोसिस सहित कई अन्य दोष भी शामिल हैं। ये परीक्षण कई प्रकार के होते हैं, जैसे कि न्यू बोर्न स्क्रीनिंग, डायग्नोस्टिक टेस्टिंग, कैरियर टेस्टिंग, प्रीनैटल टेस्टिंग, प्री-इम्प्लांटेशन टेस्टिंग, प्रीडिक्टिव टेस्टिंग, फॉरेंसिक टेस्टिंग, जेनेटिक टेस्टिंग परीक्षण खून के नमूनों, बाल, त्वचा, गालों के अंदर मौजूद ऊतकों के नमूने या यहां तक कि गर्भ में भ्रूण के चारों ओर मौजूद अम्नीओटिक तरल पदार्थ का किया जा सकता है। सर्वश्रेष्ठ परिणाम प्राप्त करने के लिए विशेषज्ञों और अत्यधिक प्रशिक्षित प्रोफेशनलों के द्वारा अवलोकनों की निगरानी की जानी चाहिए।a

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