इसे जुवेनाइल डायबिटीज भी कहते हैं जिसमें बचपन से ही बच्चे के शरीर में इंसुलिन की बीटा कोशिकाएं बेकार हो जाती हैं जिससे इंसुलिन नहीं बन पाता। ऐसे में मरीज को इंसुलिन की पूर्ति पूर्ण रूप से नहीं हो पाती। मरीज को इंजेक्शन या दवा से इंसुलिन की खुराक दी जाती है।
यह उम्र के बढऩे के साथ खराब जीवनशैली के कारण होती है। इसमें पेन्क्रियाज इंसुलिन तो बनाता है लेकिन शुगर को ऊर्जा में बदलकर शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचाने में असमर्थ हो जाता है। इसके लिए मरीज को दवाएं देकर पेन्क्रियाज की इंसुलिन बनाने की क्षमता को बढ़ाया जाता है।
दोनों प्रकार की डायबिटीज यानी टाइप-1 और टाइप-2 में मरीज के लक्षण लगभग समान होते हैं। फर्क सिर्फ उनकी गंभीरता का होता है। शुगर ज्यादा होने पर भूख और प्यास ज्यादा लगना, बार-बार यूरिन आना, धुंधला दिखाई देना, पैरों में जलन या किसी भी तरह के घाव को भरने में समय लगने जैसी दिक्कतें सामने आती हैं।
आमतौर पर एक स्वस्थ व्यक्ति को 35 साल की उम्र के बाद सेहत संबंधी जांचें जैसे ब्लड टैस्ट, ब्लड शुगर टैस्ट आदि करवानी चाहिए ताकि अगर कोई आशंका हो भी तो उसके बचाव के तरीके और समय पर इलाज को अपनाया जा सके। इसके अलावा ऐसे व्यक्ति जिनमें डायबिटीज का खतरा रहता है उन्हें 20 साल की उम्र से ही कोलेस्ट्रॉल, किडनी और हृदय से जुड़ी प्रमुख जांचें कराने की सलाह दी जाती है। साथ ही गर्भावस्था में भी रोग की आशंका होने पर संबंधित जांचें करवा लेनी चाहिए।
मरीजों को ऐसी दवाएं देते हैं जो पेन्क्रियाज की कार्यप्रणाली को सुधारने के साथ सामान्य मात्रा में इंसुलिन बनाने में मदद करती हैं। कुछ मामलों इंसुलिन रेसिस्टेंस की स्थिति में इंसुलिन सेंसिटाइजर देते हैं जिनका काम ब्लड शुगर के स्तर को सामान्य कर अंगों द्वारा इंसुलिन प्रयोग में लेने की क्षमता को बढ़ाना होता है।
इन दिनों डायबिटीज के टाइप-2 मरीजों को सोडियम ग्लूकोज को-ट्रांसपोर्टर-2 (एसजीएलटी-2) इंहेबिटर्स भी देते हैं। इसे सही डाइट और नियमित व्यायाम के साथ लेने की सलाह दी जाती है ताकि किडनी के जरिए अतिरिक्त शुगर यूरिन के रूप में बाहर निकल सके। यही इस दवा का मुख्य काम भी है। कुछ मरीजों में अन्य रोगों के अनुसार इसके दुष्प्रभाव भी देखे जा सकते हैं इसलिए डॉक्टरी सलाह के बाद ही इसे लेने के लिए कहते हैं।