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रोग और उपचार

बोनमैरो ट्रांसप्लांट का विकसित रूप स्टेम सेल थैरेपी

ब्लड से जुड़े कैंसर की अंतिम स्टेज पर मरीज को 80-90 फीसदी तक लाभ हो सकता है।

जयपुरMay 03, 2019 / 10:35 am

Jitendra Rangey

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बोनमैरो ट्रांसप्लांट का ही आधुनिक रूप
ब्लड से जुड़े कैंसर व ऑटोइम्यून डिजीज के इलाज के लिए आजकल स्टेम सेल ट्रांसप्लांट तकनीक प्रयोग में लाई जा रही है। असल में यह बोनमैरो ट्रांसप्लांट का ही आधुनिक रूप है। जब इन बीमारियों की अंतिम स्टेज पर इलाज का विकल्प नहीं रहता तो स्टेम सेल थैरेपी काम में ली जाती है।
स्टेम सेल ट्रांसप्लांट
बोनमैरो में स्टेम सेल पाए जाते हैं जो शरीर में लाल रक्त व श्वेत रक्त कणिकाएं और प्लेटलेट्स बनाते हैं। थैलेसीमिया, ब्लड कैंसर, ए-प्लास्टिक एनीमिया जैसे ब्लड से जुड़े कैंसर और मल्टीपल स्क्लेरोसिस, एसएलई जैसी ऑटोइम्यून डिजीज में कीमोथैरेपी के बाद मरीज के शरीर में स्टेम सेल ट्रांसप्लांट किए जाते हैं।
दो तरह से होता ट्रांसप्लांट
ये ट्रांसप्लांट दो तरह से होते हैं। कुछ मामलों में मरीज के ही स्टेम सेल प्रयोग में लिए जाते हैं व कुछ में दानदाता की मदद ली जाती है। पहले ये सेल बोनमैरो से लिए जाते थे इसलिए इसे बोनमैरो ट्रांसप्लांट कहा जाता था। लेकिन अब मरीज या डोनर को पांच दिन तक इंजेक्शन या दवाएं देकर इन सेल की मात्रा ब्लड में बढ़ा दी जाती है। फिर बोनमैरो की बजाय इन्हें सीधे ब्लड से निकालकर कीमोथैरेपी के बाद मरीज के ब्लड में प्रत्यारोपित किया जाता है। इसी आधुनिक तरीके को स्टेम सेल ट्रांसप्लांट या स्टेम सेल थैरेपी कहा जाता है।
ट्रांसप्लांट की सफलता
इस ट्रांसप्लांट से मरीज 80-90 फीसदी तक ठीक हो जाता है। कैंसर की पहली स्टेज में इलाज से परिणाम अधिक बेहतर मिलते हैं।
कौन होता है डोनर
एलोजेनिक पद्धति में ज्यादातर डोनर भाई-बहन या कोई अन्य सगा संबंधी होता है क्योंकि सेल डोनेट करने से पहले डोनर का मरीज से एचएलए मिलान (जीन्स की मैचिंग) करना होता है। एचएलए मिलान न होने पर विकल्प के तौर पर राष्ट्रीय स्तर की गैर-सरकारी संस्था दात्री में या अंतरराष्ट्रीय संस्था नेशनल मैरो डोनर प्रोग्राम में समान जीन्स के स्टेम सेल के लिए अप्रोच किया जा सकता है। ये संस्थाएं स्टेम सेल डोनर की रजिस्ट्री कराती हैं। इसके अलावा डोनर के जीन्स का हाफ मैच विकल्प भी रहता है।
प्रत्यारोपण के प्रमुख प्रकार
इस ट्रांसप्लांट से कैंसर की पहली स्टेज में इलाज से परिणाम बेहतर मिलते हैं।
एलोजेनिक : थैलेसीमिया, ब्लड कैंसर, व मायलोडिसप्लास्टिक सिंड्रोम जैसे रोगों में मरीज के स्टेम सेल ठीक से काम नहीं करते हैं। ऐसे में उन्हें प्रयोग नहीं किया जा सकता। लिहाजा पहले कीमोथैरेपी से उसके प्रभावित कैंसर सेल को नष्ट किया जाता है। फिर दाता के स्टेम सेल को मरीज के रक्त में प्रत्यारोपित कर देते हैं। धीरे-धीरे शरीर में कोशिकाएं नई स्टेम सेल बनाने लगती हैं। बाद में मरीज को विशेषज्ञ के बताए अनुसार फॉलोअप के लिए आना होता है।
ऑटोलोगस : एसएलई, मल्टीपल स्क्लेरोसिस या अन्य ऑटो इम्यून डिजीज में मरीज का प्रतिरोधक तंत्र शरीर के विरुद्ध काम करने लगता है लेकिन इससे मरीज के स्टेम सेल प्रभावित नहीं होते। इनमें कीमोथैरेपी के दौरान हाई डोज दी जाती है जिससे अच्छे स्टेम सेल के नष्ट होने की आशंका रहती है। ऐसे में मरीज के स्टेम सेल कीमोथैरेपी देने से पहले ही शरीर से निकालकर सुरक्षित कर लिए जाते हैं व थैरेपी के बाद उन्हें फिर से इंजेक्ट किया जाता है।
भ्रम न पालें
आजकल स्टेम सेल प्रिजर्व कराने का चलन बढ़ रहा है। लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार स्टेम सेल के लिए मोटी रकम खर्च करने और बेवजह की कवायद का कोई औचित्य नहीं क्योंकि ये सेल सामान्यत: बच्चे के काम नहीं आते हैं। यदि भविष्य में परिवार के किसी सदस्य को ऐसी परेशानी होने पर डोनर की जरूरत पड़ती है तो ये सेल मौजूदा समय में भी किसी सगे-संबंधी के शरीर से लेकर प्रयोग में लाए जा सकते हैं। इसके लिए इन्हें पहले से प्रिजर्व कराने की जरूरत नहीं। अमरीकन सोसाइटी ऑफ हेमेटोलॉजी के अनुसार भी स्टेम सेल उन्हीं बच्चों के प्रिजर्व कराने चाहिए जो फैमिली हिस्ट्री होने की वजह से हाई रिस्क जोन में आते हैं। ऐसे मामलों में ये सेल परिवार के दूसरे बच्चे के काम आ सकते हैं जैसे- यदि घर के बड़े बच्चे को ब्लड से जुड़ा कोई कैंसर है और छोटे को नहीं तो छोटे बच्चे के प्रिजर्व सेल को बड़े बच्चे के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
डॉ. संदीप जसूजा, मेडिकल ऑन्कोलॉजी व बोनमैरो ट्रांसप्लांट विशेषज्ञ

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