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डूंगरपुर

मौत से लड़ रही मासूम का सवाल ‘मां मेरा कसूर क्या था’, पढ़िए 12 दिन पहले दुनिया में आई बेटी की दर्दभरी दास्तां

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डूंगरपुरJan 24, 2019 / 11:36 am

Nidhi Mishra

National Girl Child Day: 12 days old girl struggling with death

National Girl Child Day: 12 days old girl struggling with death

डूंगरपुर। 12 जनवरी 2019 की सुबह जिला मुख्यालय से सटे गुमानपुरा गांव में झाड़ियों की बीच कांटों के बिस्तर पर मिली यह नन्हीं बेटी पिछले 12 दिनों से मौत से लड़ कर जी रही है। जन्म के तुरंत बाद ठुकरा कर कंटकों पर डाली गई इस बेटी को जब अस्पताल लाया गया था, उसका पूरा शरीर कांटों से जख्मी और लहूलुहान था। उसकी हालत देखकर एकबारगी चिकित्सकों के चेहरे भी रूआंसे हो गए थे। इलाज शुरू करने से पहले तक वह भी यह कहने की स्थिति में नहीं थे कि बच्ची बच भी पाएगी या नहीं, लेकिन इस बेटी की जीवटता देखकर उनका भी हौंसला बढ़ा। धीरे-धीरे स्वास्थ्य में सुधार हुआ। अस्पताल से छुट्टी भी मिल गई, लेकिन बुधवार को एक बार फिर तबीयत बिगडऩे पर उसे अस्पताल की एफबीएनसी युनिट में भर्ती कराया है। राष्ट्रीय बालिका दिवस पर इस नन्हीं बहादुर बेटी की व्यथा और पीड़ा. . .

मां मेरा कसूर क्या था. . . मां. . . मैं तो तेरे आंगन की बगिया का फूल थी, फिर क्यों मुझे कांटों में फेंक दिया था। प्यार से दुलारते ही गाल सुर्ख हो जाएं ऐसे पंखुडिय़ों से भी कोमल शरीर को कड़ाके की ठण्ड में बिना आंचल के बेरहमी से कांटों पर डालते तेरा कलेजा नहीं फटा। माना तू मजबूर थी, पर मैं भी तो बेकसूर थी। तेरी बेबसी क्या मेरी जिन्दगी से भी बड़ी थी? शायद ही मेरे शरीर का कोई हिस्सा ऐसा बचा था, जिस पर कांटा न चुभा हो, खून न बहा हो. . .। भला हो उस मां का जिसने मेरी पुकार सुन मुझे उठाया। अस्पताल पहुंचाया। भला हो उस मां का जो नौकरी के बहाने ही सही ‘जशोदा’ बन मुझे और मुझ जैसी कई बेटियों को दुलार रही है। कोई बता रहा था कि आज राष्ट्रीय बालिका दिवस है. . . यानि मेरा और मेरे जैसी लाखों करोड़ों बेटियों का दिन।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ सप्ताह मनाया जा रहा है। नारे लगाए जा रहे हैं। बैनरों पर हस्ताक्षर कर फोटो खिंचवाए जा रहे हैं। दीवारों पर पोस्टर चिपकाए गए हैं। रैलियां निकाली जा रही हैं। बेटियों की घटती संख्या पर असफर, नेता चिन्ता जता रहे है। पर, सच बताऊं मां. . . आज 12 दिन बीत गए। मेरे जख्म सहलाने इनमें से कोई नहीं आया। सडक़ों पर कई बेटियां भीख मांगते हुए घूमती हैं, अपने परिवार के साथ गुब्बारे-खिलौने बेचने भटकती हैं, उन्हें पढ़ाने कोई नहीं गया। मैं एक सप्ताह तक अस्पताल में जिन्दगी और मौत से लड़ती रही। मैंने डॉक्टर अंकल को कहते सुना था कि बहुत कमजोर हूं, संक्रमण का खतरा है, मां की गोद और उसका दूध मिले तो मैं जल्द ठीक हो सकती हूं, कुछ दिन तो अपनी किस्मत पर रोती रही, लेकिन फिर मन ही मन तय कर लिया कि मां ने तो मरने के लिए छोड़ा था, उसे पुकारने से क्या होगा? जीना शुरू किया, तो देखते ही देखते तबीयत में सुधार हुआ। अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हूं, टूटती सांसे थामने की कोशिश कर रही हूं। अपनों सा दुलार ढूंढ रही हूं। खैर, मैं तो मेरा जीवन संघर्ष अपने दम पर लड़ रही हूं, लेकिन आज के दिन इतना ही कहूंगी कि कोख में मरती बेटी को बचाने के साथ ही जन्म ले चुकी बेटियों को कांटों में झोंकने से बचाया जाए। अपनी जीवटता के दम पर बची मेरे जैसी बहादुर बेटियों को भी समाज में सम्मान और दुलार मिले। तभी बेटी बचाने के नारों की सार्थकता है, वरना रस्म अदायगी तो बरसों से चल रही है और आगे भी चलती रहेगी।

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