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गुजराती कलमकारी में मां अंबे की कहानी और भील पेंटिंग में नजर आया प्रकृति का प्रेम, देखिए वीडियो

गल्र्स कॉलेज दुर्ग में चल रही लोक-जनजातीय चित्रकारी के प्रशिक्षण में इन दिनों छात्राएं एवं कलाकार काफी कुछ नया सीख रहे हैं

दुर्गDec 07, 2017 / 03:12 pm

Dakshi Sahu

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भिलाई.गल्र्स कॉलेज दुर्ग में चल रही लोक-जनजातीय चित्रकारी के प्रशिक्षण में इन दिनों छात्राएं एवं कलाकार काफी कुछ नया सीख रहे हैं। दूसरे प्रदेशों की खास पेंटिंग और उनसे जुड़ी दंत कथाएं उनकी ट्रेनिंग को और भी रोचक बना रही है। खासकर गुजराती कलमकारी को सीखने छात्राओं में अलग ही उत्साह नजर आ रहा है।
बारीकियां सिखा रहे
गुजरात से आए जगदीश चितारा चादर पर कलमकारी को सीखा रहे हैं। वहीं गुजरात के ही राकेश राठवा और हरिसिंह राठवा पिथौरा पेंटिंग की जानकारी दे रहे हैं। गुजरात के साथ ही मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले से आएकलाकार गोंड पेटिंग की बारीकयां सिखा रहे हैं। उनकी पेंटिंग में जहां आदिवासयिों की देवी-देवताओं के प्रति अपनी आस्था अलग ही नजर आती है।
सांस्कृतिक धरोहर को समझ रहे
कॉलेज के फाइन आर्ट डिपार्टमेंट के एचओडी डॉ. योगेश त्रिपाठी बताते हैं कि इस तरह की वर्कशॉप से ना सिर्फ छात्राओं को नई चित्रकारी सीखने मिल रही है, साथ ही वे हमारे देश की सांस्कृतिक धरोहर को भी समझ रही है। क्योंकि चित्र तो कोईभी देखकर बना सकता है,लेकिन उन चित्रों के पीछे कलाकार की क्या भावना है यह समझना जरूरी है।
मां भगवती को चढ़ते हैं कमलकारी वाले कपड़े
गुजरात के कलाकार जगदीश चितारा ने बताया कि गुजरात में चादरों पर मां अंबे, काली के प्रसंगों को कलमकारी के जरिए दर्शाया जाता है।इसे गुजराती में ‘ माता नी पिछौड़ीÓ कहा जाता है। मूलरूप से इस कलमकारी में काले और लाल रंगो ंका ही ज्यादा प्रयोग किया जाता है। इतना ही नहीं यह रंग भी वे खुद तैयार करते हैं।
काला रंग तैयार करने लोहे की कड़ाही में इमली के बीज और गुड़ से यैार किया जाता है। जबकि लाल रंग लाल रंग के पत्थर सेत तैयार किया जाता है। पीले रंग के लिए हल्दी या हरमन पत्थर का उपयोग किया जाता है। उन्होंने बताया कि इस कलमकारी में खोडिय़ार माता, विशद माता, मेलणी माता, मां काली, मां अंबे से जुड़ी कथाओं को उकेरा जाता है। इस कलमकारी वाली चादर को लोग मन्नत पूरी होने पर माता को अर्पण करते हैं।
आदिवासी संस्कृतिक का दर्पण है भील पेंटिंग
गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में बसें भील जनजाति की संस्कृति काफी मिलती जुलती है। जंगल और शिकार से जुड़े होने के कारण उनकी चित्रकारी में ज्यादातर जंगल, शिकार, और ग्रामीण परिवेश का चित्रण ज्यादा मिलता है।
गुजरात के ही हरिसिंह राठवा एवं राकेश राठवा बताते हैं कि भील लेटिंग को पिथौरा चित्र भी कहा जाता है। इसमें ज्यादातर आइदवासी अपने देवता को घोड़े के रूप में चित्रित करते हैं।जब घर में कोई अनुष्ठान होता है। यह चित्र दीवारों पर उकेरे जाते हैं। लेकिन अब यह चित्र कैनवास और साडिय़ों तक पहुंच गए है। ड्रेस डिजानिंग में इसका उपयोग अब ज्यादा किया जाने लगा है।

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