इटावा परिक्षेत्र में कछुओं की तस्करी लंबे समय से जारी है। चंबल, यमुना, सिंधु, क्वारी और पहुज जैसी नदियों के अलावा अन्य छोटी नदियों और तालाबों से तस्कर कछुओं को पकड़ते हैं। 1979 में सरकार ने चंबल नदी के लगभग 425 किलोमीटर में फैले तट से सटे इलाके को राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य घोषित किया था। इसका मकसद घडिय़ालों, कछुओं (गर्दन पर लाल व सफेद धारियों वाले कछुए) और गंगा में पाई जाने वाली डाल्फिन का संरक्षण था। अभयारण्य की हद उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश और राजस्थान तक है। इसमें से 635 वर्ग किलोमीटर आगरा और इटावा में है। इटावा परिक्षेत्र की नदियों में कछुओं की लगभग 55 जतियां पाई जाती हैं, जिनमें साल, चिकना, चितना, छतनहिया, रामानंदी, बाजठोंठी और सेवार आदि प्रसिद्ध हैं।
इटावा और आसपास के क्षेत्रों में 100 से अधिक बड़े कछुआ तस्कर सक्रिय हैं। 1980 से अब तक इटावा से ही सौ से भी अधिक तस्कर गिरफ्तार किए जा चुके हैं, इनके पास से 85 हजार से ज्यादा कछुए बरामद किए गए। इनमें से 14 तस्कर पिछले दो बरसों में पकड़े गए हैं, जिनके पास से 12 हजार से ज्यादा कछुए बरामद हुए। तस्कर 100 रुपए प्रति कछुए से लेकर हजारों रूपए तक में इन्हें बेचते हैं। इटावा में एक किलो चिप्स का दाम 3,000 रुपए हैं। पश्चिम बंगाल पहुंचते-पहुंचते कीमत दस गुना तक पहुंच जाती है।
भारतीय वन्य जीव संस्थान देहरादून के सवंर्धन अधिकारी डॉ. राजीव चौहान के मुताबिक उप्र से कछुओं की सबसे ज्यादा सप्लाई पश्चिम बंगाल होती है। यहां से बांग्लादेश के रास्ते चीन, हांगकांग और थाईलैंड जैसे देशों में इन्हें बेचा जाता है।
माना जाता है कि कछुओं का मांस इंसानी पौरुष बढ़ाने की दवा का काम करता है। भारतीय कछुओं की खोल, मांस या फिर उसके बने चिप्स की मांग पूरी दुनिया में है। कुछ देशों में कछुए का मांस बहुत पसंद किया जाता है। कछुए के सूप और चिप्स को भी तरह से तरह से बनाकार परोसा जाता है। टरट्वाइज एड इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन में केवल खोल की जेली बनाने के लिए ही सालाना 73 हजार कछुए मारे जाते हैं। डॉ. राजीव चौहान के मुताबिक कछुओं के शरीर की निचली सतह (जिसे प्लैस्ट्रॉन कहते हैं) को काट कर घंटों उबाला जाता है। बाद में इसको साफ कर परत को सुखा लिया जाता है। इससे चिप्स तैयार होती है। एक किलो वजन के कछुए में तकरीबन 250 ग्राम चिप्स बनती है।