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गोरखपुर

दलित, ब्राह्मण-मुसलमान सब मिलकर यहां की रामलीला को करते हैं जीवंत, न कोई जातिबंधन न धार्मिक भेदभाव

रामलीला का 179वां सांस्कृतिक पड़ाव, ग्रामीण कलाकारों से सजता है मंच

गोरखपुरOct 07, 2019 / 03:07 am

धीरेन्द्र विक्रमादित्य

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कुशीनगर के कसया मठिया माधोपुर गांव में अंग्रेजी काल (वर्ष 1840) से हर साल होती चली आ रही रामलीला का यह 179वां पड़ाव है। यह पड़ाव ग्रामीण कलाकारों से सजा शानदार सांस्कृतिक सफर का यादगार है। साम्प्रदायिक एकता की मशाल को जलाती आ रही इस परंपरा में न सिर्फ 35 फुट ऊँचा रावण का पुतला विशेष है, बल्कि इसका शरद पूर्णिमा को होने वाला दहन भी काफी आश्चर्यचकित करने वाला है।
यहां जाति का बंधन है और न ही साम्प्रदायिक भेदभाव। रामलीला के आयोजन में सबकी भागीदारी तय है। बांसफोड़ रावण के पुतले के लिए बातियां बनाते हैं तो मुसलमान कलाकार उसे मूर्त रूप देते हैं। राम-सीता विवाह में मुसलमानों की भागीदारी भी है। भारतीय संस्कृति के मुताबिक नेवता देना इसको अलग पहचान देने वाला है।
ग्रामीणों की मानें तो कार्तिक पंचमी को हनुमान चबूतरा तैयार होने के बाद रामचरित मानस का पाठ शुरू हुआ। मानस पाठ करने वाले ग्रामीणों ने वर्ष 1839 में पहली बार रामलीला का मंचन भोजपुरी में किया। वर्ष 1840 में रामलीला का आयोजन शुरू हो गया। लोगों को न तो खड़ी बोली आती थी और न ही वे हिन्दी जानते थे। गांव में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या थी ही नहीं। बावजूद इसके रामलीला की शुरुआत भोजपुरी में हो गयी।
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खड़ी बोली का हुआ प्रयोग
रामलीला में सबसे पहली बार खड़ी बोली का प्रयोग गांव के अनपढ़ कलाकार (ताड़का बनने वाले ठगई राय) ने किया। ‘मार डालेंगीं, काट डालेंगीं‘ बोलकर सबको हैरत में डाल दिया था। तब मजाक के रूप में लिया गया यह वाक्य ही रामलीला को हिंदी में शुरू करने की प्रेरणा बना।
अयोध्या बाबा ने डाली नींव
72 वर्षीय डॉ इंद्रजीत मिश्र, 65 वर्षीय पंडित नंदकिशोर दूबे की मानें तो अयोध्या से रामलीला देख गांव लौटे पंडित अयोध्या मिश्र ने श्रीरामचरित मानस का पाठ शुरू कराया। लेकिन खिचड़ी बाबा उर्फ सुुरजन मिश्र ने रामलीला कराना शुरू किया।
महिलाओं के मंगल गीत से गूंजता है मैदान
राम-सीता विवाह में गांव महिलाओं की भागीदारी रहती है। मंगलगीत गाने के लिए इनमें आज भी उत्साह है। विवाह के दिन मंच पर चढ़कर बाकायदा यह रामलीला की भागीदार बनतीं हैं। शादी-ब्याह में गाई जाने वाली गारी की परंपरा का निर्वहन, राम-सीता विवाहोत्सव को जीवंत करता है।

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