Republic Day Specialआजादी की दीवानगी ऐसी कि खुद जेलर ही कैदियों को आजाद कर भूमिगत हो गए
अंगे्रजों के जमाने के मोती जेल के जेलर की वह कहानी जिसे याद रखना चाहेगा हिन्दुस्तान
गोरखपुर। भारतीय गणतंत्र में सांस ले रही पीढ़ी को शायद ही यह इल्म हो कि उनके आज के लिए पूर्वजों ने कैसे-कैसे जुल्म सहे, किस स्तर पर कुर्बानियां दी। गोरखपुर का बसंत सराय और मोती जेल आज भी अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता की कहानी बयां करते हैं। आजादी के लिए दीवानगी ऐसी थी कि मोती जेल के जेलर आजादी के आंदोलन में खुद कूद पड़े थे। हालांकि, बाद में अंग्रेजों ने उनको फांसी की सजा दे दी थी।
बाईपास से सटे सौदागार मोहल्ले के पीछे लालडिग्गी सब स्टेशन के सामने एक बड़ी सी टूटी फूटी चाहरदीवारी है। यह चाहरदीवारी किसी जमाने में राजा बसंत सिंह का किला हुआ करती थी। अंग्रेजी सल्तनत ने जब पांव पसारे तो इस किले का जेलखाने में बदल दिया। पुरानी जेल या मोती जेल के नाम से मशहूर जेल का खंडहर ही बचा है। जेल का अस्तित्व करीब-करीब समाप्त होने को है। अब यहां आसपास लोगों का बसेरा बन चुका है। प्राचीन डोमखाना या प्रथम जेल का निमार्ण कब हुआ यह ठीक-ठीक कोई नहीं बता पाता। सन् 1857 के बाद इस इमारत का उपयोग सरकारी जेलखाने के रूप में किया जाता था। जेल की दीवारें क्रांतिवीरों के वीरता और अंग्रेजों की क्रूरता की दास्तां कह रही हैं। न जाने कितने देशभक्त यहां कैद में यातनाएं सहे और देश के नाम अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। देश के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारी बाबू बंधु सिंह इसी जेल में बंदी रखे गए थे। 1857 की क्रांति के समय के समय इस जेल में मिर्जा आगा इब्राहीम बेग जेलर के पद पर थे। 1857 की क्रांति में उन्होंने भी देश के लिए लड़ने का फैसला किया। जब क्रांति की बिगुल बजी तो उन्होंने सबसे पहले मोती जेल में कैद सभी क्रांतिवीरों और कैदियों को आजाद कर दिया। इसके बाद आंदोलन चलाने के लिए स्वयं भूमिगत हो गए। इन्हीं की पुत्री थी रानी अशरफुन्निसा खानम, जिनके नाम पर मुहल्ला शेखपुर में एक इमामबाड़ा बना हुआ है। इनके पति बंदे अली बेग के पिता को इसी दौर में क्रांतिकारी होने के कारण फांसी दी गई थी। मिर्जा आगा इब्राहीम बेग के पूर्वज मिर्जा हसन अली बेग सन् 1739 में नादिर शाह के हिन्दुस्तान पर आक्रमण के समय ईरान से दिल्ली आए थे।
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