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ग्वालियर

प्रदेश में लगाए गए सेंसर के खिलाफ पत्रिका की मुहिम को लोगों ने सराहा,कही ये बड़ी बात

प्रदेश सरकार को जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की आवाज पर ताला लगाने की जरूरत पड़ी

ग्वालियरMar 25, 2018 / 06:42 pm

monu sahu

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ग्वालियर। जनता अपनी बात सरकार के सामने सीधे नहीं रख सकती, इसलिए जनप्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है। जिससे वह सरकार और जनता के बीच की दूरी को पाट दें। लेकिन, १४ साल तक सत्ता में रहने के बाद आखिर एेसा क्या हुआ कि प्रदेश सरकार को जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की आवाज पर ताला लगाने की जरूरत पड़ी। सदन में अगर विधायक सवाल ही नहीं करेंगे, तो क्या वे सिर्फ वेतन लेने के लिए सदन में रहेंगे।
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लोगों को तो पता भी नहीं था कि उनकी आवाज उठाने वाले जनप्रतिनिधि की जुबान पर सेंसरशिप के लिए काला काननू बना दिया गया है। वो तो भला हो पत्रिका का, जिसने बिना किसी डर के निष्पक्ष और बुलंद आवाज उठाई। जिसके कारण आखिरकार सरकार झुकी, और काला कानून वापस लेना पड़ा। कुछ इसी तरह के विचार शहर के प्रबुद्धजनों ने शनिवार को पत्रिका कार्यालय में आयोजित टॉक शो में व्यक्त किए।
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“विधानसभा या फिर संसद में जनप्रतिनिधि को नींद लेने, चाय पीने या फिर वेतन लेने के लिए नहीं भेजते, बल्कि वह तो जनता की आवाज के रूप में सदन में जाते हैं। लेकिन, जब उन जनप्रतिनिधि को ही बोलने नहीं दिया जाएगा तो यह लोकतंत्र की हत्या है। अगर आंख, कान और नाक पर ही ताला डाल दिया जाए तो पूरी व्यवस्था ही ध्वस्त हो जाएगी।”
गायत्री सुर्वे, एडवोकेट
“जनता के चुने हुए जनप्रतिनिधि की आवाज को दबाने के लिए सरकार जो काले कानून को लेकर आई उसे वापस लेने में पत्रिका ने जिस तरह से मुहिम चलाकार काम किया, वह बहुत ही सराहनीय है। यह बहुत ही गलत संकेत है। आखिर सरकार क्या करना चाहती है? उसकी पूरी कार्यप्रणाली पर ही संदेह हो रहा है। इसे हम सभी को समझना होगा।”
सुनील शर्मा,जिला उपाध्यक्ष, कांग्रेस कमेटी
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“सरकार की मानसिकता ही ठीक नहीं लगती। सरकार यदि को कोई गलत कानून लेकर आती है तो उसका विपक्ष को विरोध करना चाहिए। लेकिन, यहां तो पत्रिका ने विपक्ष की भूमिका निभाते हुए जो काम किया वह सराहनीय है। इसके लिए काफी हद तक जनता भी जिम्मेदार है। जिस दिन हम जाग जाएंगे, सरकार की हिम्मत नहीं होगी हमारी आवाज दबाने की।”
सुधीर सप्रा,सामाजिक कार्यकर्ता
“सत्ता पूरी तरह से निरंकुश हो गई है, और विपक्ष सोया हुआ है। पत्रिका ने जब मुद्दा उठाया तब विपक्ष जागा। राजस्थान में भी काले कानून के खिलाफ पत्रिका ने लड़ाई लड़ी और जब तक काला तब तक ताला, नाम से मुहिम चलाई। पत्रिका ने राजस्थान में सरकार के समाचार का बहिष्कार किया,लेकिन विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने नहीं। आखिर ४ साल बाद सरकार को इस तरह का कानून लाने की क्या जरूरत पड़ी।”
आशीष वैश्य, उद्योगपति
“पत्रिका की जो टेगलाइन है निर्भीक, निस्वार्थ और निष्पक्ष वास्तव में उसने उसे सही साबित किया है। संविधान ने हमें बोलने की आजादी दी है, लेकिन सरकार उस पर ही ताला लगाना चाहती है। यह सब इसलिए हो रहा है कि आज प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री देश या राज्य का न होकर पार्टी विशेष तक सीमित होकर रह गया है।”
प्रेम सिंह भदौरिया, पूर्व अध्यक्ष अभिभाषक संघ ग्वालियर
“जुमलेबाज और धोखेबाज सरकार ने काला कानून लाकर जनता की आवाज को दबाने की कोशिश की। प्रजातंत्र का गला घोंटने वालों को सत्ता में रहने का अधिकार नहीं है। भाजपा की जहां जहां सरकार है, वहां काला और ताला लगाने की कोशिश की जा रही है। सरकार चाहती थी कि काला कानून बनाकर उसने जो घपले किए हैं उनकी पूछ-परख नहीं हो पाए “
मोहन माहेश्वरी, जिलाध्यक्ष माहेश्वरी समाज
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