साहूकार के घिनौने मुखौटे को उजागर कर पत्नी ने जताया विरोध, मिला इंसाफ
वक्त के साथ बस मुखौटे बदले हैं। ऐसे ही मुखौटों को बेनकाब करती नाट्य प्रस्तुति है ‘साहूकार’, जिसका मंचन नाट्योत्सव के समापन पर शिवाजी पार्क के मंच पर हुआ।
साहूकार के घिनौने मुखौटे को उजागर कर पत्नी ने जताया विरोध, मिला इंसाफ
ग्वालियर . पेट का सवाल गरीब को वो सब कुछ करने को मजबूर कर देता है, जो सोचने भर से हृदय कांप उठता है। समाज की आर्थिक विषमता में गरीब हमेशा से साहूकारों के लिए आसान शिकार होते आए हैं। सूद के बदले गिरवी रखी गरीब की जवान होती बेटी उस पल तक ही बेटी है, जब तक पुरुष की वासना-कामान्धता उस पर हावी नहीं होती। एक पल में सारे रिश्ते, नाते, उम्र, परिवार और समाज के कथित कपड़ों को उतारकर औरत के जिस्म को नोचने वाले साहूकार हर कालखण्ड में हर जगह मौजूद थे और आज भी है। वक्त के साथ बस मुखौटे बदले हैं। ऐसे ही मुखौटों को बेनकाब करती नाट्य प्रस्तुति है ‘साहूकार’, जिसका मंचन नाट्योत्सव के समापन पर शिवाजी पार्क के मंच पर हुआ। पत्रिका के लिए इस नाटक की समीक्षा वरिष्ठ रंगकर्मी मनोज शर्मा ने की।
कोढ़ बन चुकी बुराइयों पर किया हमला : अद्भुत कला एवं विज्ञान मंच किसी नाट्य संस्था का नाम नहीं लगता, लेकिन नाटक मंचन की निरंतरता इसे सक्रिय नाट्य संस्था के रूप में स्थापित करती है। नाटक साहूकार का लेखन परिकल्पना और निर्देशन अशोक सेंगर ने किया है। साहूकार नाटक अपनी पहली ही मंचीय प्रस्तुति में दर्शकों की कसौटी पर कई मायनों में सफ ल रहा। लेखक, निर्देशक, अभिनेता और पूरी टीम इस बात के लिए जरूर बधाई की पात्र है कि उसने एक ऐसा नाटक खेला, जिसके माध्यम से समाज में कोढ़ बन चुकी बुराइयों पर एक साथ हमला किया, झकझोरा और सार्थक संवादों के बाद सोचने पर विवश किया।
कलाकारों ने बखूबी निभाई भूमिका : नाटक की शीर्षक भूमिका में ऋ तुराज कुछ दृश्यों में अभिनय की झलक जरुर दिखा सके। वहीं अपेक्षाकृत छोटी भूमिका ढेंचा निभाने में दीपक परमार सफ ल रहे। चुनौतीपूर्ण बडक़ी का रोल संघमित्रा कौशिक ने संजीदगी से निकाला। अपनी उम्र से बड़ी भूमिका निभा रतिया बनी विश्रुति शर्मा संभावना जगाती हैं। कमला फेम गीतांजलि ने नाटक के आखिरी दृश्य को प्रभावी और संदेशपरक बनाने में सार्थक भूमिका निभाई। नाटक में भजन अच्छे बन पड़े। गायक और संगीत की दोहरी जिम्मेदारी विमल वर्मा ने बखूबी से निभाई। सफ ल, सार्थक, लेखन, निर्देशन और मंचन के लिए अशोक सेंगर को दर्शकों का विश्वास हासिल हुआ।
कथानक: गरीब की जवान हो रही बड़ी बेटी को सूद के बदले में गिरवी रखते वक्त साहूकार कहता है। उसकी कोई औलाद नहीं तो बडक़ी को वो अपनी बेटी मानकर रखेगा। लेकिन बाद में एक दिन एकांत में कामांध साहूकार अपनी असली औकात में आ जाता है और लडक़ी के साथ जबरदस्ती करने में कामयाब हो जाता है, जिससे लडक़ी गर्भवती हो बच्चे को जन्म देती है। गरीब मां बाप अपनी बेटी को वापस करने की गुहार करते हैं, लेकिन साहूकार की धूर्तता के आगे उनकी कोई सुनवाई नहीं होती। साहूकार की बीबी अपने पति का जोरदार विरोध करती है और नाटक के अंत में हैवानियत के प्रतीक राक्षस रूपी साहूकार का वध करने मानो देवी दुर्गा बन जाती है। सामाजिक बुराइयों के खिलाफ सार्थक संदेश देने की मांग करता नाटक गंभीर सवाल खड़े करता है।
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