अवा दुवर्ने के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने छह साल पहले ऑस्कर अवॉर्ड ( Oscar Awards ) और गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड समारोह में खासी सुर्खियां बटोरी थीं। फिल्म 1965 में अश्वेत नागरिकों को वोट का अधिकार देने के लिए अमरीकी शहर सेलमा (अलबामा) से मोंटगोमेरी तक निकाले गए ऐतिहासिक मार्च पर आधारित है, जिसकी अगुवाई मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने की थी। इस मार्च के बाद अश्वेतों को वोट डालने का अधिकार तो मिल गया, लेकिन इक्कीसवीं सदी में भी अमरीकी समाज रंगभेद से मुक्त नहीं हो सका है। समय-समय पर वहां अश्वेतों की 13 फीसदी आबादी के प्रति नफरत के मामले सामने आते रहते हैं। जॉर्ज फ्लॉयड की मौत तथाकथित सभ्य और विकसित अमरीका के दामन पर नया धब्बा है।
अश्वेतों के साथ-साथ एशियाई लोगों को लेकर अमरीका की दुर्भावना और पूर्वाग्रह की झलक हॉलीवुड की फिल्मों में भी देखी जाती रही है। विल स्मिथ, डेंजल वाशिंग्टन, हेली बेरी, रेजिना किंग, पीटर रामसे, स्टीव मैक्वीन, जेनिफर हडसन, जैमी फॉक्स और मॉर्गन फ्रीमैन जैसे कई अश्वेत सितारे हॉलीवुड के कमाऊ पूतों में गिने जाते हैं, फिर भी वहां के फिल्मकार अपनी फिल्मों में अश्वेतों और एशियाई लोगों को निशाना बनाने से नहीं चूकते। कई फिल्मों में ऐसे लोगों का या तो मजाक उड़ाया जाता है या उन्हें शातिर बदमाश के तौर पर पेश किया जाता है। गोरे रंग को गर्व का प्रतीक मानने वाली मानसिकता अगर सिनेमा में भी इस तरह का प्रदूषण फैला रही है तो यह तमाम दुनिया के लिए चिंता की बात है। याद आता है कि ऑड्रे हेपबर्न की ‘ब्रेकफास्ट एट टिफनीज’ (1961) में यूनिओशी नाम का एक किरदार रखा गया था। उसे शातिर दिखाकर और अजीब तरह से अंग्रेजी बुलवाकर जापानियों का मजाक उड़ाया गया था। ‘इंडियाना जॉन्स एंड द टेम्पल ऑफ डूम’ में अमरीश पुरी को दुष्ट तांत्रिक का किरदार सौंपकर स्टीवन स्पीलबर्ग दुनिया को भारत की कौन-सी तस्वीर दिखाना चाहते थे, समझा जा सकता है।
हॉलीवुड की ‘ग्रीन बुक’ (2019), ’12 एंग्रीमैन’ (1957), ‘मिसीसिप्पी बर्निंग’ (1988), ‘ग्रेन टोरिनो’ (2008), ‘द बटलर’ (2013), ‘गेट आउट’ (2017) तथा ‘इन द हीट ऑफ द नाइट'(1967) जैसी दर्जनों और फिल्मों में अमरीका का रंगभेदी चेहरा सामने आया था। अफसोस की बात है कि दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अब तक अतार्किक और अमानवीय सोच की गिरफ्त में है।