प्रजापति समाज के वरिष्ठजनों सहित नगर के अन्य जानकारी भी बताते हैं कि किसी समय गर्मी के मौसम में प्रतिदिन सुबह की पैसिंजर व शटल ट्रेन की लगेज बोगियां मात्र सुराही से ही भर जाया करती थीं। तथा इलाहाबाद से लेकर बंबई तक के प्राय: सभी बड़े बाजारों में सोहागपुर की सुराही भेजी जाती थी। लेकिन अब तो जिले के बाजारों में ही सोहागपुरी सुराही की मांग बहुत कम हो गई है। यद्यपि जानकार लोग जरूर यदि पचमढ़ी, मढ़ई आदि क्षेत्रों में आते हैं तो सोहागपुर में रुककर सुराही जरूर खरीदकर ले जाते हैं।
प्रजापति समाज के हीरालाल प्रजापति ने बताया कि मिट्टी के दाम बढऩे के कारण इस साल मटका व सुराही निर्माण का कार्य धीमा हो गया है। उन्होंने बताया कि गत वर्ष तक 1800 रुपए प्रति ट्राली में मिलने वाली मिट्टी अब तीन हजार रुपए तक कीमती हो गई है। वहीं लकड़ी का रेट गत वर्ष लगभग 400 रुपए क्विंटल था, जो कि इस वर्ष बढ़कर लगभग 550 रुपए प्रति क्विंटल हो गया है। कच्ची लेकिन जरूरी सामग्री की कीमतों में इस प्रकार की वृद्धि से मटका व सुराही निर्माण कार्य पर प्रभाव बुरा पड़ा है। तथा प्रत्येक यूनिट पर काम भी कम किया गया है और लोगों ने कम संख्या में दोनों बर्तन बनाए हैं। और जो बनाए भी हैं, तो उनके दाम में गत वर्ष की अपेक्षा अधिकतम 10 रुपए की बढ़ोतरी ही की जा सकी है, क्योंकि दाम में अधिक बढ़ोतरी पर बर्तन बिकना मुश्किल हो जाएगा।
हीरालाल प्रजापति ने बताया कि कार्यालयों व घरों में भी अब चिल्ड वाटर प्लांट से पानी की कैन जाने लगी हैें। जो कि रखरखाव में कम समय लेती हैं। जबकि मटके के साथ रखरखाव की दरकार होती है तथा दैनिक रूप से सफाई भी करना होता है। जबकि मटका खरीदी में मात्र एक बार ही राशि व्यय करनी होती है। वहीं कैन में रोजाना कोई न कोई किराया तथा चार्ज देना होता है। फिर भी लोगों का रुझान मशीनी रूप से ठंडे किए जाने वाले पानी की ओर अधिक जाता है, जबकि मटका व सुराही का प्राकृतिक प्रक्रिया से ठंडा किया जाने वाला पानी अधिक स्वादिष्ट व शरीर उपयोगी होता है। लेकिन आधुनिकता के चलते प्रक्रियाएं बदल गई हैं और इनका असर परंपरागत रोजगारों पर पड़ा है।
प्रजापति समाज के कुछ लोगों से पत्रिका ने चर्चा की तो उन्होंने बताया कि किसी समय सोहागपुर में 30 से अधिक परिवार मिट्टी से पात्र निर्माण का परंपरागत कार्य करते थे। लेकिन अब यही संख्या 10 से 15 पर सिमटकर रह गई है। कारण है कि शिक्षित युवा इस रोजगार से मुंह मोड़ रहे हैं, वहीं कच्ची सामग्री के बढ़ते दाम और सरकार की ओर से इस परंपरागत रोजगार को कोई सहायता न मिल पाना भी परिवारों की संख्या सिमटने का बड़ा कारण है। सरकार मिट्टी कला के नाम पर राशि तो व्यय करती है, लेकिन वह शासकीय सहायता भी अति उच्च व कुलीन वर्ग के आभूषण या पात्र या मूूर्ति बनाने वाले कारीगरों को ही मिल पाती है। परंपरागत मिट्टी कला का कार्य करने वाले तो योजना से वंचित ही रह जाते हैं।