सोहागपुर के मटकों और सुराही की मांग गर्मी शुरू होने के साथ ही समूचे नर्मदांचल क्षेत्र में दशकों से रही है, लेकिन लागत में लगने वाले कच्चे माल की बढ़ती कीमतों से अब इस कार्य से जुड़े कारीगरों की संख्या घटती जा रही है। । पिछले एक दशक में सोहागपुर की नामी सुराही व मटका निर्माण कला धीरे-धीरे चमक खोती जा रही है। एक दशक पहले तक सोहागपुर के मटका व सुराही रखना मध्यम व उच्च वर्ग अपनी शान समझता था। लेकिन अब समय के साथ इनका स्थान रेफ्रिजरेटर ने ले लिया है। इसके चलते भी व्यवसाय पर असर पड़ रहा है।
सोहागपुरी पान अपने निराले स्वाद के कारण जिले सहित दूसरे प्रांतों में भी खासी पहचान बनाए हुए है। लेकिन हर वर्ष आने वाली प्राकृतिक आपदा के कारण अब पान के शौकीनों के अधरों से सोहागपुर बंगला पान की लाली छिनती जा रही है। आज से करीब दो दशक वर्ष पूर्व तक जहां पलकमति के दोनों किनारों पर बड़ी संख्या में पान के बरेजे ही बरेजे नजर आते थे, अब धीरे-धीरे इनकी संख्या कम ही होती जा रही है। एक समय था जब चौरसिया समाज के प्रत्येक परिवार का व्यवसाय एकमात्र पान बरेजा ही हुआ करता था लेकिन अब समय के साथ-साथ बरेजों की संख्या घटती जा रही है। अब सोहागपुर में पान बरेजा लगाने वाले लगभग कुछ ही परिवार बचे हैं। इसलिए दूर-दूर तक अपनी पहचान बनाने वाला सोहागपुरी पान अब गुमनाम सा हो चला है।
सोहागपुर के पान के साथ ही पान बरेजों में लगने वाले परवल भी परवल के शौकीनों में खास पहचान रखते हैं। पान के साथ लगने के कारण इनके विशेष स्वाद के कारण इन परवलों की मांग भी दूर-दूर तक थी। आज भी पान के बरेजों में लगने वाले परवल उस समय के शौकीन लोग चाव से खाते हैं। एक से दो रुपए प्रति नग के हिसाब से ये परवल आज भी पान व्यवसायियों के पास मिलते हैं। जिन्हें शौकीन लोग महंगे दामों पर खरीद कर खाते हैं। लेकिन अब जबकि पान की खेती पर ही संकट मंडराने लगा है तो फिर पान के बरेजों से निकलने वाले इन परवलों का स्वाद भी पहचान खोने लगा है।
सोहागपुर की पहचान रहे पान, परवल और सुराही के व्यवसाय से जुड़े लोगों की अलग-अलग पीड़ा है। माटी कला के व्यवसाय से जुड़े हेमंत प्रजापति के अनुसार मटका व सुराही निर्माण करने वालों को भी बांस का कार्य करने वालों की तरह सरकारी सहायता मिले अथवा उन्हें भी कम कीमत पर कच्ची सामग्री मिलने लगे तो इससे मटका व सुराही निर्माण में लागत कम आएगी और उनका मुनाफा बढ़ सकेगा। वहीं पान की खेती से जुड़े सतीष चौरसिया, अरुण चौरसिया का कहना है कि प्राकृतिक आपदा के चलते होने वाले नुकसान का मुआवजा भी शासन के मान से बहुत कम मिलता है। जो मुआवजा शासन द्वारा दिया जाता है वह हैक्टेयर के हिसाब से दिया जाता है, जबकि पान की खेती क्यारियों में होती है। इसलिए हैक्टेयर के अनुसार दिया जाने वाला मुआवजा पान व्यवसायियों के लिए ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित होता है। पीडि़तों का कहना है कि प्रशासन को इस ओर ध्यान देना चाहिए ताकि पूरे प्रदेश में जिले की पहचान बनाने वाले इन पुस्तैनी व्यवसायों को बचाया जा सके।