डॉ. कोठारी ने कहा, आत्मा का यात्रा मार्ग शरीर है। मंजिल क्या है, इसे समझने के लिए विवेक होना जरूरी है। वर्ण और आत्मा के हिसाब से कर्म तय करेंगे तो सफलता मिलेगी। यही बात गीता सिखाती है। इसके विपरीत किए कार्यों से परिणाम नहीं मिलेंगे।
गीता का सिद्धांत कर्म का सिद्धांत है। भाव यह होना चाहिए कि बीज बोना मेरे हाथ में है, फल लगेंगे या नहीं, लगे तो किसे मिलेंगे, इस पर मेरा वश नहीं है।
मन फल के स्वरूप में अटक जाता है, जिससे सफलता का इंडेक्स नीचे आ जाता है। प्राणियों की आत्मा एक है और इसमें ईश्वर रहता है। अगर मैं आत्मा हूं तो शरीर क्या है, यही गीता सिखाती है। अपने बारे में जो निर्णय ले रहे हो, उस पर सोचना है। आत्मा के विकास के लिए अनुशासन और आत्मनिर्भरता जरूरी है। एक ईश्वर को समझने की व्यवस्था को ज्ञान मार्ग कहते हैं। यह स्वरूप विभिन्न तरीकों से कैसे प्रकट हो रहा है, इसे समझने को विज्ञान कहते हैं। विज्ञान भाव में कर्म को देखना शुरू होगा तो समझ आएगा कि यह काम किसलिए कर रहे हैं? कहां जाना है?
उन्होंने कहा, कर्म के साथ सपने जोडऩे से काम अटक जाता है।
वर्तमान में जीने का अयास होना चाहिए। कर्म की विस्तृत व्याख्या करते हुए डॉ. कोठारी ने कहा, कर्म सिर्फ शरीर का काम नहीं है। जैसे खाना खाते समय आंख, नाक आदि को भी सुगंध और रस के लिए कर्म करना होगा। बुद्धि और मन का भी कर्म होता है।
इसी को समझना है। मन की व्यवस्था को गीता की दृष्टि से देखेंगे तो हर समस्या का हल मिलेगा। सेज यूनिवर्सिटी के कुलपति अंकुर अरुण कुलकर्णी ने कोठारी का स्वागत किया।
क्यों पर होना चाहिए ध्यान
प्रधान संपादक डॉ. कोठारी ने कहा कि धर्म व्यक्तिगत चीज है। हमारा ध्यान क्यों पर होना चाहिए। क्यों का जवाब ढूंढ़ते हुए वैज्ञानिक दृष्टि पर जाना होगा। शब्द भी शरीर है। मन में खुद के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए। हम स्वयं ईश्वर हैं। आज मरने के बाद भी धर्म पीछा नहीं छोड़ता है। स्वयं को नियंत्रित करें। इससे समझ आएगा कि दूसरों के लिए जीना है।