कहानी कुल इतनी है कि नायक मनमोहन एक लेखक है और बड़े शहर में स्ट्रगल कर रहा है। फुटपाथ पर रहता है। उसका एक बिजनेसमैन दोस्त है, जिसके पास एक दफ्तर है। दोस्त को एक सप्ताह के लिए बाहर जाना है, तो वह मनमोहन को उस दौरान अपना दफ्तर रहने के लिए दे देता है। पहले ही दिन ऑफिस के फोन पर एक लडक़ी का फोन आता है। हालांकि वह रॉन्ग नंबर है पर दोनों को एक-दूसरे से बात करना अच्छा लगता है। लडक़ी रोज उसे फोन लगाती है। फोन पर बात करते-करते ही दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं। मनमोहन लडक़ी को सब कुछ बता देता है कि उसके पास कोई घर नहीं है और फोन, दफ्तर किसी और का है। वह मजाक में कहता है कि कुछ ही दिन में उसकी बादशाहत का खात्मा होने वाला है। दोस्त के लौटने में जब तीन दिन ही बचते हैं, तब अचानक मनमोहन की तबीयत खराब हो जाती है। लडक़ी को फोन पर ही यह पता लगता है। आखिरी दिन जब मनमोहन उसे कहता है कि आज मेरी बादशाहत का आखिरी दिन है, उसी वक्त लडक़ी उसे अपना फोन नंबर लिखवाती है और नंबर लिखते-लिखते ही मनमोहन की मौत हो जाती है।
उर्दू के संवादों में नहीं दिखी रवानी नाटक में मनमोहन की भूमिका में थे नितिन तेजराज, फोन करने वाली लडक़ी थीं उज्मा खान और दोस्त थे फिरोज खान। मनमोहन और लडक़ी की फोन पर बातचीत से ही नाटक आगे बढ़ता है और इसके लिए निर्देशक ने मंच के दो हिस्से किए थे, जिसमें दोनों पात्र दर्शकों के सामने रहते हैं। दोनों के कमरे की सज्जा भी निर्देशन ने कल्पनाशीलता के साथ की। एंड्रॉयड फोन के युग में लैंडलाइन फोन पर प्रेमवार्ता युवा दर्शकों को अजीब लग सकती है, लेकिन जिस दौर की यह कहानी है, तब लैंडलाइन फोन भी एक लग्जरी होता था। दोनों की बातचीत का इत्मीनान भी उस दौर की नुमाइंदगी करता है। मुश्किल यह रही कि कलाकार नए होने के कारण उर्दू के संवादों में वह रवानी नहीं ला सके जो नाटक के लिए जरूरी थी। नाटक में गालिब की एक गजल नुक्ताचीं है गमे दिल का इस्तेमाल भी अच्छा प्रयोग रहा।