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इंदौर

धर्मान्धता और तानाशाही के खिलाफ खड़ा है कबीरा

कबीर जन उत्सव में भीष्म साहनी के नाटक का मंचन

इंदौरJun 17, 2019 / 05:52 pm

राजेश मिश्रा

Drama Act

धर्मान्धता और तानाशाही के खिलाफ खड़ा है कबीरा

इंदौर. कबीर जन विकास समूह की ओर से आयोजित कबीर जन उत्सव में रविवार को दो नाटक खेले गए। एग्रीकल्चर कॉलेज के ऑडिटोरियम में पहला नाटक शहर के रंगरूपिया थिएटर ने किया बारह से पैंतीस, फिर भोपाल की माही सोशल सोसायटी के कलाकारों ने निजाम पटेल के निर्देशन में भीष्म साहनी का बहुचर्चित नाटक कबीरा खड़ा बाजार में पेश किया।
भीष्म साहनी की यह कृति मध्ययुगीन भारत में फैली धर्मान्धता, कर्मकांड, मिथ्याचार, छुआछूत, नफरत आदि के बीच कबीर के संघर्ष को न सिर्फ सही परिप्रेक्ष्य में पेश करता है उसे समकालीन विकृतियों से भी जोड़ता है। इस नाटक को निर्देशक निजाम पटेल ने बहुत सादगी के साथ मंच पर पेश किया। न भारी सेट न वेशभूषा का तामझाम। शुरुआत काशी के मुस्लिम कोतवाल और उसके हिंदू सहायक के बीच संवााद से शुरू होती है। सहायक उसे हिन्दू समाज की वर्णव्यवस्था के बारे में समझाता है साथ ही यह सलाह भी देता है कि कबीर से संभल कर रहें क्योंकि वह हिन्दू और मुसलमान दोनों का विरोध करता है।
काशी में कबीर के भजन लोकप्रिय होने से सत्ता की त्योरियां चढ़ती हैं। भय फैलाने के लिए कबीर के पद गाने वालों को मरवाया या सताया जाता है । कबीर और रैदास मिल कर गंगा किनारे सत्संग करने लगते हैं। इसका भी विरोध होता है। कबीर की झोपड़ी जला दी जाती है। सता और धर्म मंे मठाधीशों का गठजोड़ भी समाने आता है जब एक बड़े अखाड़े के संत अपने मठ के सामने लोगों की बस्ती को हटवाने के लिए रिश्वत भी देते हैं।
नाटक में दृश्यों की एकरसता बनी रही। कबीर के विवाह का प्रसंग जरूर कोमलता के साथ मंचित हुआ, एेसी ही कल्पनाशीलता अन्य दृश्यों में भी होती तो नाटक अधिक दर्शनीय बनता। वेशभूषा और बेहतर हो सकती थी। कुछ युवा कलाकारों की आधुनिक हेयर स्टाइल भी उस काल के अनुरूप नहीं थी। कबीर की भूमिका में अजय श्रीवास्तव और रैदास की भूमिका में राज सिरमोलिया जमे, दोनों ने गायन भी अच्छा किया, राज ने नाटक का संगीत भी कंपोज किया। कोतवाल की भूमिका में निर्देशक निजाम पटेल भी ठीक रहे। कबीर की पत्नी की छोटी सी भूमिका में जूली प्रिया भी दर्शकों को याद रहीं।
पकड़ नहीं बना सका बारह सौ पैंतीस
रूं गरूपिया का नाटक बाहर सौ पैंतीस का शीर्षक दरअसल संविधान के उन अनुच्छेदों से संबधित है जिनमें सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता, न्याय, शिक्षा आदि का अधिकार देता है, छूआछूत से मुक्ति का अधिकार दिया गया है। नाटक में प्रेमचंद की तीन कहानियों, सद्गति, ठाकुर का कुंआ और सवासेर गेहूं के जरिए भारतीय समाज में छुआछूत, ब्राह्मणों के विशेषाधिकार, कर्ज में फंसे किसानों के शोषण की कथा कहने की कोशिश की गई, पर नाटक में इन तीनों कहानियों का दृश्य पाठ ही किया गया जिसमें दो सूत्रधार कहानी के बारे में बताते हैं और बीच में कुछ दृश्य भी रचे हैं। तीनों कहानियों में दो दो सूत्रधार होने के बावजूद कहानियों प्रभाव नहीं छोड़ पाईं।

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