कहानी 50 के दशक के मुंबई की है। नायक मनमोहन बेरोजगार लेखक है। उसके पास कोई घर नहीं है। वह फुटपाथ पर सोता है। एक दिन उसका दोस्त उसे अपने ऑफिस में रहने का ऑफर देता है, क्योंकि वह दो हफ्तों के लिए बाहर जा रहा है। मनमोहन ऑफिस में रहने आता है, तभी लैंडलाइन फोन की घंटी बजती है। दूसरी ओर से एक लडक़ी की आवाज आती है। फोन रांग नंबर है, इसलिए मनमोहन फोन बंद करना चाहता है, लेकिन लडक़ी उससे बात करना चाहती है। दोनों में संक्षिप्त सी बात होती है। मनमोहन अपने बारे में सब कुछ बता देता है कि वह फोन उसके दोस्त का है और वह कुछ ही दिन इस दफ्तर में रहेगा।
लडक़ी रोज दो-तीन बार फोन करती है। मनमोहन को भी उसके फोन का इंतजार रहने लगता है। लडक़ी अपना नाम और नंबर नहीं बताती और नायक भी उससे ज्यादा पूछताछ नहीं करता। फोन पर दोनों एक-दूसरे को चाहने लगते हैं। इसी बीच दोस्त का खत आता है कि वह वापस लौटने वाला है। वह लडक़ी को बताता है कि उसकी बादशाहत खत्म होने वाली है। लडक़ी कहती है तीन दिन वह बाहर जा रही है और वापस लौटने पर अपना नंबर उसे दे देगी। इन तीन दिनों में नायक की तबीयत बिगड़ जाती है। एक दिन लडक़ी का फोन आता है, लेकिन बीमार मनमोहन बात नहीं कर पाता, लडक़ी अपना नंबर बताती है, लेकिन नंबर नोट करने से पहले ही उसकी मौत हो जाती है।
इस छोटी सी कहानी पर निर्देशक ने डेढ़ घंटे का नाटक बनाया। हालांकि कहीं-कहीं नाटक बहुत धीमा भी लगा। निर्देशक ने नायिका को सफेद पर्दे पर छाया के रूप में ही दिखाया और यह प्रयोग अच्छा भी लगा, क्योंकि उसकी सूरत के बारे में नायक के साथ-साथ दर्शक भी कल्पना करते रहे। मनमोहन की भूमिका में शुभम भावसार जमे। उनका अभिनय अच्छा था। बस संवाद अदायगी में कुछ सुधार की गुंजाइश है। नायिका हर्षिका को तो दर्शकों ने उस वक्त ही देखा जब पात्र परिचय के लिए वह मंच पर आईं, पर उनकी आवाज अच्छी है। नाटक में गालिब की गजलों का प्रयोग भी अच्छा था।