लोक सेवकों की जांच के पूर्व अनुमति के कानून को चुनौती पर केंद्र और राज्य सरकार को नोटिस
हाईकोर्ट ने 23 फरवरी तक मांगा जवाबपत्रिका ने 2 जनवरी को किया था प्रमुखता से प्रकाशित
सास-ससुर के तानों पर कोर्ट का बड़ा फैसला
जबलपुर. मप्र हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 में किए गए हालिया संशोधन को चुनौती पर गम्भीरता दर्शाई। चीफ जस्टिस मोहम्मद रफीक व जस्टिस विजय कुमार शुक्ला की डिवीजन बेंच ने इस सम्बंध में दायर याचिका की सुनवाई करते हुए केंद्र व राज्य सरकार को नोटिस जारी किए। कोर्ट ने 23 फरवरी तक जवाब मांगा। ‘पत्रिका’ ने गत दो जनवरी को इस मसले को प्रमुखता से प्रकाशित किया था।
यह है मामला
जबलपुर निवासी नागरिक उपभोक्ता मार्गदर्शक मंच के डॉ. पीजी नाजपांडे व डॉ. एमए खान की ओर से याचिका दायर की गई। अधिवक्ता दिनेश उपाध्याय ने कोर्ट को अवगत कराया कि सरकारी कर्मियों व लोकसेवकों का भ्रष्टाचार नियंत्रित करने के लिए केंद्र सरकार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 लाई थी। यह अधिनियम अपने मकसद में कुछ हद तक कामयाब भी रहा। लेकिन, केंद्र सरकार ने हाल ही में अधिनियम में संशोधन कर इसमें नई धारा 17 ए जोड़ दी। इस धारा के तहत प्रावधान किया गया कि लोकसेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले की शिकायत पर जांच आरम्भ करने के पूर्व सक्षम अधिकारी से अनुमति लेना आवश्यक है।
अधिवक्ता उपाध्याय ने इस संशोधन को गैरकानूनी बताया। उन्होंने तर्क दिया कि लोकसेवक की परिभाषा में सभी अधिकारी और जनप्रतिनिधि (विधायक, मंत्री) आते हैं। नए प्रावधान के तहत इनके खिलाफ जांच की अनुमति देने वाला भी सरकारी अधिकारी होगा। इसके चलते इन लोकसेवकों के खिलाफ जांच की अनुमति निष्पक्षता से प्रदान की जाएगी, यह संदेह के घेरे में है। उन्होंने तर्क दिया कि अधिनस्थ कार्यरत अधिकारी अपने वरिष्ठ अधिकारी या जनप्रतिनिधि के खिलाफ अनुमति देने से गुरेज करेंगे। इस तरह से भ्रष्टाचार अधिनियम 1988 की वास्तविक मंशा पूरी होने में केंद्र सरकार ने इसमें संशोधन कर बाधा पैदा करने का प्रयास किया। आग्रह किया गया कि उक्त संशोधन को विधि विरुद्ध मानते हुए निरस्त करने के निर्देश दिए जाएं। प्रारम्भिक सुनवाई के बाद कोर्ट ने याचिका में बनाए गए अनावेदकों को नोटिस जारी करने के निर्देश दिए।
‘पत्रिका’ ने पहले भी उठाए ऐसे मुद्दे
मध्यप्रदेश में दो साल पहले ऐसा ही एक और लोकतंत्र विरोधी नियम लागू करने की कोशिश की गई थी। विधायकों के प्रश्न पूछने के अधिकार पर ही एक तरह से सेंसरशिप लागू की जा रही थी। तब भी ‘पत्रिका’ ने इस मुद्दे पर आवाज उठाई। ‘पत्रिका’ की पहल को व्यापक जनसमर्थन मिला और विधानसभा को निर्णय बदलना पड़ा। राजस्थान और मध्यप्रदेश में ऐसे कानूनों का ‘पत्रिका’ ने न सिर्फ विरोध किया, बल्कि सरकारों को उन्हें वापस लेने को मजबूर किया।
भ्रष्टाचार बढ़ेगा
जनहित याचिकाकर्ता डॉ. पीजी नाजपांडे का कहना है कि ‘पत्रिका’ ने 2 जनवरी को इस खबर को प्रकाशित किया था। इसमें संशोधन का विस्तार से वर्णन था। इसके बाद यह याचिका दायर की गई है। इस संशोधन से लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू जैसी एजेंसियां शक्तिविहीन हो जाएंगी। सबसे बड़ी आशंका यह है कि सरकारें राजनीतिक आधार पर इन नियमों का दुरुपयोग करेंगी। इससे ईमानदारी से काम करने वाले लोक सेवकों का मनोबल टूटेगा। भ्रष्टाचार बढ़ेगा।