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जबलपुर

रुपयो के लिए इलाज के दौरान मृत वन रक्षक का शव कमरे में बंद किया

-प्रशासनिक अफसरों के हस्तक्षेप पर परिजनों को मिला शव

जबलपुरAug 27, 2021 / 11:41 am

Ajay Chaturvedi

वन रक्षक की फाइल फोटो

वन रक्षक की फाइल फोटो

जबलपुर. एक निजी अस्पताल प्रशासन ने रुपयो की खातिर शव परिजनों को सौंपने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं अस्पताल प्रशासन ने शव को कमरे में बंद कर ताला जड़ दिया। परिवारजनों ने काफी मिन्नत की लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई तो परिवारजनो ने सारी बाद प्रशासनिक अफसरों को बताई। प्रशासनिक अफसरों के हस्तक्षेप के बाद शव परिवारजनो को सौंपा गया।
घटना के संबंध में प्राप्त जानकारी के मुताबिक पन्ना के मूल निवासी वन रक्षक डीलन सिंह (50 वर्ष) पिछले दिनों दुर्घटना में गभीर रूप से घायल हो गए। पहले उन्हें पन्ना के अस्पताल में भर्ती किया गया, जहां हालत काबू में न आता देख अस्पताल प्रशासन ने जबलपुर रेफर कर दिया। परिवारजन उन्हें लेकर जबलपुर आए और मुखर्जी हॉस्पिटल में भर्ती कराया। यहां हॉस्पिटल ने परिवारजनों से पहले ही 5 लाख रुपए जमा करा कर भर्ती किया, तब इलाज शुरू हुआ। लेकिन इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई। परिवारजनों के अनुसार मौत के बाद अस्पताल प्रशासन ने और 90 हजार रुपये की मांग की जो परिवार के लोगों के पास नहीं था। लिहाजा उन्होंने 90 हजार रुपये देने में असमर्थता जताई तो अस्पताल प्रशासन ने शव को कमरे में बंद कर ताला जड़ दिया।
डीलन सिंह ही परिवार के मुखिया रहे और उन्हीं पर घर चलाने का दायित्व था। उनकी मौत के बाद परिवारजनों पर वैसे ही गमों का पहाड़ टूट पड़ा था। ऐसे में डीलन सिंह के बेटे विकास ने अतिरिक्त पैसा जमा करने में असमर्थता जताई। इस पर अस्पताल प्रशासन ने तल्ख लहजे में कहा कि 90 हजार रुपए जमा करो, इसके बाद ही शव मिलेगा। इस पर विकास ने एसडीएम ऋषभ जैन को फोन कर सारी बात बताई। इस पर एसडीएम ने फौरन तहसीलदार संदीप जायसवाल और डॉ. विभोर हजारे को हॉस्पिटल भेजा।
गुरुवार शाम 6.00 बजे दोनों अधिकारी अस्पताल पहुंचे और अस्पताल प्रबंधन से बात की। इसके बाद अस्पतला प्रशासन, परिवारजनों को शव देने के लिए राजी हुआ। शव मिलते ही उसे मेडिकल कॉलेज भिजवाया गया। परिवारजनों के अनुरोध पर अधिकारियों ने डीन डॉ. प्रदीप कसार से बात कर रात में ही पोस्टमार्टम कराया। उसके बाद परिवारजन शव लेकर पन्ना रवाना हुए।
उधर मुखर्जी हॉस्पिटल के संचालक डॉ अभिजीत मुखर्जी ने परिवारजनों के 90 हजार रुपये न देने पर शव कमरे में बंद करने की बात को सिरे से खारिज कर दिया। कहा कि परिवार के लोग 26 जुलाई को वन रक्षक को भर्ती करने लाए थे। इलाज के दौरान ही उन्हें मेडिकल भी ले गए, फिर वापस लाए। मरीज कोमा में चला गया था। उसके ब्रेन की सर्जरी भी की गई। वह पूरे महीने लाइफ सपोर्ट पर रहा। बीच में परिजनों को बोला भी गया कि वे अपने मरीज को मेडिकल में शिफ्ट कर लें। वहां वेंटीलेटर मिल जाता और परिजनों का खर्चा भी बच जाता। हमारे अस्पताल में ही आउटसोर्स पर संचालित लाइफ केयर यूनिट में उनका इलाज चल रहा था। उन्होने कहा कि दरअसल दुर्घटना का केस था, ऐसे में शव सीधे परिजनों को नहीं दिया जा सकता था। पुलिस के आने पर शव सौंप दिया गया। रुपयों के लिए शव को कमरे में बंद करने की बाद सरासर गलत है।

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