जबलपुर। वैसे तो आदिवासियों की परपंराएं सबसे निराली और इतनी अद्भुत हैं कि इन्हें सुनने पर ही कुछ देर के लिए आश्चर्य होता है। बदलते वक्त के साथ ये अपने बच्चों की शिक्षा पर जरूर जोर देने लगे हैं, लेकिन इनकी परंपराओं में किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं आया है। कई बरसों से जंगलों में निवास करने वाले ये लोग उन्हें बड़ी ही सरतला और पूरी निष्ठा से निभा रहे हैं।
आदिवासियों की ऐसी ही एक परंपरा है गोदना, जिसे मंडला जिले मवई जंगलों में निवासरत आदिवासी देवों का आशीर्वाद और भक्ति मानकर निभा रहे हैं। मवई जिला मुख्यालय से करीब 110 किलोमीटर दूर स्थित है। बताया जाता है कि ये जिले का सबसे ठंडा स्थान है। इसी प्रकार बालाघाट से लगे हुए कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में निवासरत आदिवासी भी इस प्रथा को मानते हैं।
देवी-देवताओं को समर्पित
बताया जाता है कि ये गोदना (टैटू) इनके देवी-देवताओं को समर्पित होते हैं, गोदना में भी आदिवासियों के देवी-देवताओं के चित्र उकेरे जाते हैं। इस संबंध में इनका मानना है कि इस तरह उनके भगवान (बड़े देव) हमेशा उनके साथ रहते हैं। गोदना गुदवाने के बाद उन्हें भगवान की पूजा के लिए विशेष समय निकालने की जरूरत नहीं है। इस तरह वे हमेशा उनका स्मरण कर सकते हैं।
विशेष श्रंगार,नामकरण
ये गोदना आदिवासियों के विशेष श्रंगार में भी शामिल है। बाजूबंद से लेकर गले का हार तक का गोदना बनवाया जाता है। ये श्रंगार भी देवों को ही समर्पित होता है। नामकरण परंपरा के तहत भी आदिवासी अपना नाम अपने हाथ पर गुदवाते हैं।
इसी प्रकार कुछ आदिवासियों में मान्यता है कि जिस भी युवती को सबसे ज्यादा गोदना गुदे होते हैं वह सबसे ज्यादा सौभाग्यशाली होती है। उसके विवाह के लिए ढेरों रिश्ते आते हैं। इस वजह से भी ये लोग अपनी बेटियों को कम उम्र से ही गोदना गुदवाना शुरू कर देते हैं।
(फोटो कैप्शन: सभी प्रतीकात्मक फोटो)