जब तक पहुंचते हैं तब तक हालात बदल जाते हैं
ब्रिटिश शासन, छोटे डोंगर में राजशाही व उसके बाद भारत शासन के लाख प्रयास के बाद भी इनका राजस्व रिकार्ड तक नहीं बन पाया है। आबादी का सर्वे नहीं होने की वजह से किसी भी सरकारी योजना के लाभ से ये वंचित है। फरवरी के आखिर में जब दंतेवाड़ा जिला के बारसूर से इंद्रावती नदी पारकर पत्रिका की टीम इस साल जब शिवरात्रि मनाने तुलार गुफा पहुंची तब पता चला कि बारिश की शुरुआत से लेकर फरवरी माह के आखिर अब दोबारा यहां नहीं आ पाएंगे। तुलार गुफा के ठीक सामने माओवादियों का स्मारक व कैंप का पक्का शेड बना नजर आया। शिवरात्रि के दौरान श्रद्धालुओं को भयमुक्त करते वे कुछ दिनों के लिए यहंा से चले गए हैं। पांच से दस किमी का रास्ते में दो से पांच कच्ची झोपडिय़ां दिखाई दीँ। बिना दरवाजे के इन मकान में कोई रहवासी नहीं था। पता चला कि वे कंदमूल, शिकार व सल्फी उतारने चले जाते हैं, शाम ढलने के बाद ही वापस लौटते हैं। इन बस्तियों की नाम पट्टिका भी नहीं दिखी।
2017 में शुरू हुआ सर्वे अब तक सिर्फ 10 गांव तक पहुंचे
शासन-प्रशासन ने पहल से 21 अप्रैल 2017 से लेकर अभी तक करीब 10 गांव सर्वे कार्य पूर्ण कर लिया है। इनमें कुंदला, बासिंग, ओरछा, कुरूषनार, कंदाड़ी, कोडोली, जिवलापदर, नेडऩार, ताड़ोनार और आकाबेड़ा शामिल है। इसमें पांच गांव कोडोली, जिवलापदर, नेडऩार, ताड़ोनार व आकाबेड़ा का राजस्व विभाग ने सत्यापन कार्य पूर्ण कर ग्राम पंचायत के माध्यम से दावा-आपत्ति आमंत्रित कर ग्राम सभा के अनुमोदन के बाद पात्र 169 हितग्राहियों को चिन्हांकित कर 685 एकड़ भूमि का भू-स्वामी अधिकार पत्र प्रदान किया गया। सर्वे नहीं होने की वजह इन दस गांव के अलावा 212 बचे गांव के छह हजार से अधिक माडिय़ा जनजाति का न तो इनका आधार कार्ड, न वोटर आइडी न ही राशन कार्ड बना है। ऐसे में मतदान के महापर्व में इनकी आहुति नगण्य ही रह जा रही है।
मई से के जनवरी तक इनका जानकारी शासन- प्रशासन तक नहीं रहती
अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते इन २३२ गांव का अपनी नजदीकी बस्ती से भी संपर्क साल के पांच महीने ही रह पाता है। मई के पहले सप्ताह से लेकर जनवरी के आखिरी सप्ताह तक इनका नामोनिशान व जानकारी शासन- प्रशासन तक नहीं रहती है। राशन, स्वास्थ्य, शिक्षा व अन्य बुनियादी सुविधाओं के लिए ये महरुम ही रहते हैं। इन गांवों व रहवासियों का जनजीवन रोमांच से इतना भरपूर है कि मानवविज्ञानी इनकी तुलना अंडमान निकोबार के जारवा जनजाति से करते हैं।
जब तक पहुंचते हैं तब तक हालात बदल जाते हैं
ब्रिटिश शासन, छोटे डोंगर में राजशाही व उसके बाद भारत शासन के लाख प्रयास के बाद भी इनका राजस्व रिकार्ड तक नहीं बन पाया है। आबादी का सर्वे नहीं होने की वजह से किसी भी सरकारी योजना के लाभ से ये वंचित है। फरवरी के आखिर में जब दंतेवाड़ा जिला के बारसूर से इंद्रावती नदी पारकर पत्रिका की टीम इस साल जब शिवरात्रि मनाने तुलार गुफा पहुंची तब पता चला कि बारिश की शुरुआत से लेकर फरवरी माह के आखिर अब दोबारा यहां नहीं आ पाएंगे। तुलार गुफा के ठीक सामने माओवादियों का स्मारक व कैंप का पक्का शेड बना नजर आया। शिवरात्रि के दौरान श्रद्धालुओं को भयमुक्त करते वे कुछ दिनों के लिए यहं से चले गए हैं। पांच से दस किमी का रास्ते में दो से पांच कच्ची झोपडिय़ां दिखाई दीँ। बिना दरवाजे के इन मकान में कोई रहवासी नहीं था। पता चला कि वे कंदमूल, शिकार व सल्फी उतारने चले जाते हैं, शाम ढलने के बाद ही वापस लौटते हैं। इन बस्तियों की नाम पट्टिका भी नहीं दिखी।
२०१७ में शुरू हुआ सर्वे अब तक सिर्फ 10 गांव तक पहुंचे
शासन-प्रशासन ने पहल से 21 अप्रैल 2017 से लेकर अभी तक करीब 10 गांव सर्वे कार्य पूर्ण कर लिया है। इनमें कुंदला, बासिंग, ओरछा, कुरूषनार, कंदाड़ी, कोडोली, जिवलापदर, नेडऩार, ताड़ोनार और आकाबेड़ा शामिल है। इसमें पांच गांव कोडोली, जिवलापदर, नेडऩार, ताड़ोनार व आकाबेड़ा का राजस्व विभाग ने सत्यापन कार्य पूर्ण कर ग्राम पंचायत के माध्यम से दावा-आपत्ति आमंत्रित कर ग्राम सभा के अनुमोदन के बाद पात्र 169 हितग्राहियों को चिन्हांकित कर 685 एकड़ भूमि का भू-स्वामी अधिकार पत्र प्रदान किया गया। सर्वे नहीं होने की वजह इन दस गांव के अलावा २१२ बचे गांव के छह हजार से अधिक माडिय़ा जनजाति का न तो इनका आधार कार्ड, न वोटर आइडी न ही राशन कार्ड बना है। ऐसे में मतदान के महापर्व में इनकी आहुति नगण्य ही रह जा रही है।