आदिवासी सामाजिक समरसता का पर्व माने जाने वाले दशहरा में कोरोना की वजह से इन समाजों की उपस्थिति सोशल डिस्टेंस को प्रभावित करेगी। एक ओर जिले में 144 लागू है ऐसे में ग्रामीण आदिवासियों की कम आमद से न सिर्फ पर्व के दौरान संचालित होने वाला रथ यात्रा विधान प्रभावित होगी, बल्कि बस व रेल सेवा बाधित रहने का असर इसे देखने आने वाले पचास हजार से अधिक सैलानियों की आमद को प्रभावित करेगा।
1725 ईस्वी से निर्विध्न मनाया जाने वाला बस्तर दशहरा का पर्व देश भर में मनाए जाने वाले दशहरा पर्व से अलग है। यहां इस पर्व को मनाने की जिम्मेदारी समाज के सभी वर्ग, समुदाय, जातियों को समाहित कर दी गई हैं। इन सभी वर्ग, समुदाय, जातियों को उनके काम इस तरह से वितरित किए गए हैं कि एक के बाद एक वे इसके निर्वहन के लिए स्वस्फूर्त ही आगे आते हैं। यह सारा ताना बाना तीन सौ साल से लगातार जारी है।
इस पुराने रथ से परिक्रमा होनी है लेकिन उसकी मरम्मत और सजावट की जिम्मेदारी भी अलग-अलग आदिवासी समुदाय की होती है। परंपरानुसार इसी गांव के दो सौ से अधिक बुजुर्ग व युवा मिलकर रथ निर्माण का काम करते हैं। इसके अलावा लुहार, सजावट, फूलों से रथ ही साज सज्जा जैसे काम के लिए चोलनार गांव से भी सैकड़ों आदिवासी आएंगे।
पुराने रथ का ही होगा संचालन
बस्तर दशहरा पर्व पर दो मंजिला रथ का संचालन किया जाता है। प्रत्येक साल बीस फीट ऊंचे व करीब 25 फीट लंबे दो नए रथ का निर्माण किया जाता है। इसके लिए माचकोट व बिलोरी गांव के ग्रामीण भारी लकडि़यां लेकर आते हैं। चूंकि इस पर्व में बस्तर के राजपरिवार की काफी सजग भूमिका रहती है। मिली जानकारी के अनुसार कोरोना काल को देखते हुए राजपरिवार सदस्य ने नए रथ की बजाए पुराने रथ के संचालन करने की अनुमति दी है।
इन रस्मों पर भीड़ उमड़ेगी, संभालना पड़ेगा भारी
बस्तर दशहरा पर रथ संचालन के लिए काछनेदेवी की अनुमति ली जाती है। इस आयोजन के लिए राजपरिवार के सदस्य, पुजारी, ग्रामीण देवी बनी बालिका के पास जाते हैं। काछनगुड़ी मंदिर में होने वाले इस आयोजन में सैकड़ों लोग उमड़ते हैं।
जोगी बिठाई
बस्तर दशहरा के नौ दिनों तक रथ परिक्रमा होती रहती है। रथ परिक्रमा का संकल्प लेने आमाबाल के ग्रामीण समाधि लगाकर बैठते हैं। जोगी बिठाई की इस रस्म व उनके दर्शन के लिए लोग उमड़ पड़ते हैं।
रथ परिक्रमा
नवरात्र के प्रथम दिन से लेकर अष्टम दिन तक चार व आठ चक्कों वाले रथ की परिक्रमा होती है। तीन टन से अधिक भारी- भरकम रथ को खींचने के लिए किलेपाल व बास्तानार इलाके के हजारों ग्रामीण पहुंचते हैं। कोरोना काल में इनकी संख्या सीमित होगी तो रथ संचालन करना बेहद मुश्किल होगा।
मावली परघाव
दशहरा पर्व पर बस्तर से 70 किमी दूर दंतेवाड़ा से माता मावली की डोली शहर आती है। बस्तर में इस डोली का स्वागत करने स्वयं माता दंतेश्वरी आधे रास्ते तक जाती है। दो आराध्य देवी शक्तियों के इस भेंट को देखने इस परंपरा को देखने हजारों श्रद्धालु जमा होते हैं। कोरोना में भी लोगों को संभालना बेहद मुश्किल होगा।
भीतर रैनी- बाहर रैनी व नवाखाई
बस्तर दशहरा से जुड़ी इन रस्म में भी पूरे संभाग भर ग्रामीणों की आमद होती है। कुम्हड़ाकोट में होने वाली इन रस्म में तीन सौ से अधिक गांव के देवी- देवताओं की उपस्थिति होती है। इन देवी- देवताओं के प्रतीक को लेकर श्रद्धालुओं को आने से रोकना व इन्हें संक्रमण से बचाना प्रशासन के लिए टेढ़ी खीर साबित होगी।