तीन चरणों में हो सकता है लागू मातृभाषा में पढ़ाने के लिए तीन चरण में लागू हो सकता है। प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा से पढ़ाई की शुरुआत हो। छठी कक्षा से हिंदी और अंग्रेजी को पढ़ाई से जोड़ा जाए। इसके बाद हिंदी या मातृभाषा में शिक्षा दी जाए। जरूरी होने पर अंग्रेजी विकल्प भी चुन सकते हैं। इसके लिए देश में अनुवाद के सेंटर बनाए जाएं। इससे तकनीकी किताबें आसानी से बच्चों को उन्हीं की भाषा में उपलब्ध हो सकें। मध्यप्रदेश का उदाहरण से मामला समझें तो राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने हिंदी में बीई में कोर्स करने की अनुमति दी है, अब विद्यार्थियों के पास पुस्तकें ही उपलब्ध नहीं हैं। हमें यह मानना होगा है कि मौजूदा पढ़ाई का सिस्टम बीते पचास साल में विकसित हुआ है, इसलिए हमें कुछ समय इस मॉडल को भी देना होगा। स्नातकोत्तर अंग्रेजी भाषा में करने की सुविधा हो, जिससे वह दुनिया के बाहर भी अवसर पा सके।
कोरोनाकाल में आई परेशानी कोरोनाकाल में अचानक स्कूली बच्चों समेत सभी की पढ़ाई ऑनलाइन करानी पड़ी। ऐसे में उन परिवारों में समस्या ज्यादा आई, जो खुद तो हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में पढ़े हैं और बच्चे अंग्रेजी माध्यम में। मातृभाषा या हिंदी में पढ़ाई होती तो छोटी कक्षाओं के बच्चों को भी परिजन आसानी से समझा सकते थे।
भाषा के दरवाजे बंद न हों भाषा की बात करते हैं तो कोई भी भाषा के दरवाजे बंद नहीं होने चाहिए। ऐसा हमने संस्कृत के साथ किया। संस्कृत ने अन्य भाषाओं के लिए अपने दरवाजे बंद रखे। हमने समय रहते दूसरी भाषाओं के शब्द भी अंग्रेजी की तरह संस्कृत में समाहित किए तो आज संस्कृत अलग-थलग नहीं होती। जैसे हमारे पास ट्रेन का कोई शब्द नहीं था तो इसका अनुवाद कर लौहपथगामिनी लाए, पंप का अविष्कार पौराणिक काल में नहीं हुआ था। हमारे पास यह शब्द था ही नहीं तो उस शब्द को संस्कृत में लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। अंग्रेजी ने हिंदी सहित अन्य भाषाओं के शब्दों को लेकर अपना शब्दकोष समृद्ध किया।
पारसी समुदाय से सीखें भाषा के मामले में पारसी समुदाय का उदाहरण देना यहा तर्कसम्मत रहेगा। उन्होंने अपनी मातृभाषा गुजराती को भी नहीं छोड़ा और एक दूसरी भाषा अंग्र्रेजी को अपने साथ समाहित कर अपना और समाज का लगातार विकास किया। वे उस समय पानी के जहाज से लेकर एयरलाइंस तक भारत में लाए। आज यह समुदाय परंपरा के साथ लगातार इनोवेशन कर आगे बढ़ रहा है। बाकी देश में हम मातृभाषा को छोड़ रहे हैं। (इंटरव्यू : राजीव जैन)