जयपुर जेल ( Jaipur Central Jail ) में सबसे पहले 28 अगस्त 1953 को कालिया नाम के व्यक्ति को फांसी दी गई थी और सबसे अंत में 7 अप्रेल 1997 में बलात्कार व हत्या के दोषी को फांसी की सजा दी गई। इसके बाद फांसी नहीं दी गई और फांसी घर को संभाला भी नहीं गया। जयपुर जेल में अब तक 34 लोगों को फांसी पर लटकाया जा चुका है।
यह बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि फांसी देने पर पहले जल्लाद को सिर्फ 150 रुपए ही दिए जाते थे। 1997 में जो आखिरी फांसी दी गई थी, उसके जल्लाद को 500 रुपए का भुगतान किया गया था। तब भी राजस्थान में कोई जल्लाद नहीं था। इसलिए मेरठ से जल्लाद बुलाया गया था।
सभी जेलों में एक गेट होता है, जिसमें से ही अंदर आ जा सकते हैं। लेकिन जेल के फांसी घर में फंदे पर लटकाने के बाद शव को गेट से बाहर नहीं निकाला जाता है। शव बाहर निकालने के लिए जेल में फांसी घर के पास ही दीवार में एक खिडक़ी बनाई गई है। इस खिडक़ी से ही शव बाहर निकाला जाता है।
सेवानिवृत्त अधिकारी हिम्मत सिंह के मुताबिक, 1964 तक जेल कर्मचारी ही फांसी लगाते थे। फिर 1965 में जल्लाद फांसी की सजा देने लगे। फांसी देने से पांच दिन पहले फांसी दी जाने वाले व्यक्ति के कद-काठी और वजन का पुतला बनाया जाता था। उक्त पुतले से ही फांसीघर में फांसी देने का अभ्यास किया जाता था। फांसी पर लटकाने वाले रस्से में तार भी होते हैं। पुतले को लटकाकर चेक करते हैं कि रस्सी कमजोर तो नहीं है, चबूतरे पर लगा फाटक जाम तो नहीं है। फांसी लगाने में काम आने वाला लीवर सही काम कर रहा है या नहीं।
वर्ष 1978 में जोधपुर कार्यालय अधीक्षक पद से सेवानिवृत्त हिम्मत सिंह ने बताया कि आजादी के बाद प्रदेश में जयपुर और जोधपुर केन्द्रीय कारागार में ही फांसी घर थे। लेकिन पाकिस्तान से 1965 में युद्ध हुआ। युद्ध में पाकिस्तान वायुसेना का बम जोधपुर जेल पर गिरा। इस हमले में 32 कैदी, एक नर्सिंगकर्मी और एक सिपाही की मृत्यु हुई थी। जबकि फांसी घर का चबूतरा भी टूट गया। इसके बाद जयपुर जेल में ही फांसी दी जाने लगी।
विक्रम सिंह, आइजी, जेल मुख्यालय राजस्थान