इस तस्वीर को बदलने का दावा अगर सौ फीसदी पूरा भी हो जाए तो 400 रुपए दैनिक,12 हजार रुपए मासिक और 80 हजार रुपए किसान परिवार की सालाना आमदनी होगी। जिन्हें 2022 में भारत विकसित होता दिख रहा है वो अमेरिका के किसान की सालाना आमदनी जरुर जान लें , अमेरिका में किसान, भारत के किसान से 70 गुना ज्यादा कमाता है। अब बताइए ज़रा कि दोगुना करके भी क्या वाकई देश में किसानों की तस्वीर बदल जाएगी ? आमदनी बढ़ेगी तो क्या 2022 तक खर्च न बढ़ने की कोई गारंटी दे रही है सरकार ?
सरकार ने 13 अप्रेल 2016 को किसानों की आय के मसले पर एक कमेटी भी बनाई। कृषि मंत्रालय के एक अधिकारी अशोक दलवाई की अगुवाई में इस कमेटी ने सुझाया कि 2022 का लक्ष्य हासिल करना है तो उत्पादकता लाभ,फसल के मूल्य में कमी और लाभकारी मूल्य पर
काम करने की जरूरत है। लेकिन रिपोर्ट में ये बात कहीं सामने नहीं आई कि किसानों की आमदनी के लिए संसाधन कहां से आएंगे और कैसे सीधे किसानों तक पहुंचाए जाएंगे। देश के खेती-किसानी से जुड़े बाजार का हाल किसान जानते हैं लेकिन आप और हम सिर्फ इतना समझ लें कि देश में टमाटर और प्याज के दाम क्यों कभी सौ रूपए तक पहुंच जाते हैं और कैसे वापस एक रूपए प्रति किलो तक आ जाते हैं। सवाल ये भी है कि मंडी कारोबार में हमारे किसान की भूमिका क्या है , किसान की फसल को सुरक्षित रखने के क्या इंतजाम किए ?
मुद्दा ये भी है कि सिर्फ आमदनी बढ़ाने के दावों से क्या होगा, जब नुकसान की भरपाई का सिस्टम लचर है। हम भले ही चांद और
मंगल पर उपलब्धियां हासिल कर रहे हों,अपनी सैटेलाइट टेक्नोलॉजी की तारीफ करते नहीं थक रहे हों लेकिन ये सच्चाई भी जान लीजिए कि देश में किसानों के नुकसान के आकलन का तरीका आज भी वही है जो सरकारी सिस्टम में पीढ़ियों से चला आ रहा है। आज भी फसल की बरबादी की गिरदावरी रिपोर्ट आंखों देखे हाल के मुताबिक तय होती है।
इसीलिए गिरदावर,पटवारी, गांव के किसानों की किस्मत तय करते हैं। सेटेलाइट से नुकसान का आकलन करने का तरीका अभी एक्सपेरिमेंट के दौर में ही है…। किसानों की व्यावहारिक समस्याएं बहुत है लेकिन किसान राजनीति और सरकारी दावों के शोर में इन पहलुओं को कोई देख तक नहीं पाता। किसानों की आमदनी कोई सरकार कैसे तय कर सकती है जब खेती एक निजी व्यवसाय है। सरकार सिर्फ नीतियां बना रही है, कृषि में सुविधाएं बढ़ाने की बात हो रही है, बाजार विकसित हो रहे हैं लेकिन ये भी जान लीजिए कि आपका वास्तविक किसान नहीं , बल्कि कॉर्पोरेट खेती इन सुविधाओं का ज्यादा फायदा ले रही है।
सीधी सी बात ये है कि आमदनी बढ़ानी है तो उत्पादन बढ़ाना होगा, निवेश बढ़ाना होगा। क्या देश के किसान में भारी निवेश की क्षमता है ? अगर नहीं तो फिर क्यों ये न मान लिया जाए कि कृषि क्षेत्र में रियायतों का फायदा किसानों से ज्यादा कंपनियां उठा रही है। क्या आज किसान अपनी नई पीढ़ी के लिए खेती-किसानी को सुरक्षित व्यावसाय मान रहा है…अगर नहीं तो फिर देश में भविष्य की तस्वीर क्या होगी…बड़ी कंपनियां खेती करेंगी और आपका परम्परागत किसान खेतिहर मजदूर बनकर काम करेगा।
किसानों की माली हालात क्या है और परेशानी की इंतहा क्या है वो यूं समझिए कि देश में 1995 से लेकर 1995 से 2014 की अवधि में करीब तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली। 2014 में सरकार ने एनसीआरबी के आंकड़ों में और वर्गीकरण कर लिया जिसमें आत्महत्या के मामलों में किसानों की केटेगरी से खेतीहर मजदूरों को अलग से चिन्हित करना शुरु कर दिया। 2014 में आंकडे देखेंगे तो राजस्थान में किसान आत्महत्या के आंकड़े सिर्फ तीन है और खेतीहर मजदूरों को जोड़ेंगे तो आंकड़ा 73 पार मिलेगा। हैरान करने वाला तथ्य है कि सिर्फ किसान हित के मुद्दों पर ही नहीं बल्कि आत्महत्या के आंकड़ो पर सरकारी
तंत्र लीपापोती करता दिख रहा है।
किसान को अपनी जमीन का मालिक भी कहां रहने दे रही हैं सरकारें ? भूमि अधिग्रहण का साया किसान के सिर पर हमेशा मंडराता रहता है। हर बार समर्थन मूल्य पर खरीद की घोषणा ज्यादा और अमल चुनिंदा लोगों तक सीमित रह जाता है। किसान कतार में इंतजार करता रहता है और समर्थन मूल्य पर खरीद में भी मंत्री या किसी नेता का रसूख आड़े आ जाता है। राजस्थान में सहकारिता मंत्री अजय सिंह किलक पर ये आरोप लग चुके हैं कि हजारों को दरकिनार कर मंत्री जी के खास जानकारों की फसल खरीद ली गई। बाद में मंत्रीजी की सफाई आई कि मैंनें किसी को वरीयता तोड़ने के लिए नहीं कहा।
कृषि में नए रिसर्च के काम देश में कम हो रहे हैं और इस्राइल या अन्य किसी देश में किसान प्रतिनिधिमंडल जाता है तो आम किसान नहीं बल्कि प्रगतिशील किसान के नाम पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हवाई सैर ज्यादा होती है। इन हालात में किसानों की आमदनी दोगुनी कैसे होगी और हो भी जाए तो किसान की कितनी तकदीर बदलेगी ? किसान आमदनी बढ़ाने का सियासी बयान हकीकत से दूर फसाना ज्यादा है। किसान हित नहीं, किसान राजनीति के हितों से सरकारों को सरोकार है।