दिलीप कुमार के पास १९४७ मॉडल ड्यूक कार तो थी, लेकिन उसके पुर्जे नहीं मिलने से खराब पड़ी थी। दिलीप कुमार के आने के बाद जयपुर में पुरानी कारों की पूछ होने लगी। सेठों, रईसों और जागीरदारों के पास जंग खा रही बूढ़ी कारों को खरीदने बेचने का सिलसिला शुरु हुआ। पुरानी कारों के शौकीन सुधीर कासलीवाल आदि ने मिलकर हैरिटेज कारों की रैली निकालने का सिलसिला शुरू किया। कासलीवाल ने अपने पिता लक्ष्मी कुमार कासलीवाल की डॉजेज आदि विदेशी कारों को संभाल कर रखा है।
जयपुर में सबसे पहले डॉ. दलजंग सिंह खानका ने इंग्लैण्ड में बनी ऑस्टिन सिंगर व स्टेडी बेकर कार मंगवाई थी। १९२२ की रीयो को अब्दुल गनी बड़े ठाठ से चलाते। १९३० की शॅवरलेट में बग्घी जैसी सीटें व महंगे गलीचे का पायदान था। इसमें पौ पौ व कुर्र कुर्र करते रबड़ के हॉर्न थे। राजा अमर नाथ अटल, बाबू हकीकत राय, डॉ. दुर्जन सिंह, नवाब मुर्करम अली के पास कारें थीं। खाचरियावास के जागीरदार सुरेन्द्र सिंह के पास हीलमेन और धर्मवीर सिंह शेखावत के पास १९३७ की फोर्ड बेबी कार थी। चौमूं, सामोद, उनियारा, दांता, सीकर, खेतड़ी, नवलगढ़, अलसीसर, सिरस आदि दर्जनों जागीरदारों के पास १९१४ से १९४१ तक के मॉडल की ऑस्टिन, मारिस, फोर्ड, बैंटले, मर्सडीज, फ्यूजियो, रिनोल्ट, सनबींस, रॉल्स रॉयस आदि कारें थीं।
डॉ. पीडी माथुर के पास १९२७ की ऑस्टिन व १९२८ की फोर्ड हरिनारायण कचौलिया के पास रही। १९३० की रॉल्स रॉयस टी.के. उन्नीथान चलाते। गैराज के हैड मिस्त्री खवास बक्स भी बग्घियों को छोड़ कारों की मरम्मत करने लगे। जामनगर महाराजा ने भवानी सिंह को जन्म दिवस पर १९२७ की लेंचेस्टर बेबी कार भेंट की। बाद में यह कार मनोहर लाल अग्रवाल के पास चली गई। कारों की मरम्मत के लिए स्टेशन रोड पर गोपीजी ने वर्कशॉप खोला।
अब्दुल वहाब के पास लकड़ी के पहियों की ऑरलैण्ड कार में लकड़ी की छत व कांच की जगह लोहे की जाली थी। चौड़ा रास्ता के डॉ. गजाधर चौधरी के पास भी हैरिटेज कार थी। १९२३ की ऑस्टिन चम्मी व १९२९ की इरेस्कीन कार हमीद खान व पुुलिस में रहे बिरजू सिंह के पास १९४७ की बेबी सी कार है। यह कार पहले रामजी काक के पास रही। रामपाल मिस्त्री की हम्बर इंग्लिश १९३४ कार ने रैलियों में हिस्सा लिया। गांधीनगर मोड़ के पूरण चंद कुमावत के घर ऑस्टिन १० आज भी खड़ी है।