भारत देश की आजादी ( India independence ) के लिए वैसे तो ऐसे कई लोग हैं, जिन्होंने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, लेकिन महज 18 साल की उम्र में हंसते हंसते सूली पर चढ़ने वाले सबसे युवा क्रांतिकारी शहीदों में खुदीराम बोस का नाम आता है। खुदीराम बोस का नाम हालांकि कम प्रचलित जरूर है, लेकिन उनके बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता। खुदीराम को सबसे कम उम्र के उग्र और युवा क्रांतिकारी देशभक्त का दर्जा हासिल है।
इस तरह स्वतंत्रता आंदोलनों में निभाई भूमिका
नवीं कक्षा के बाद खुदीराम बोस ने स्कूल छोड़ दी और रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बन गए। खुदीराम ने वन्दे मातरम् ( Vande Mataram ) पैंपलेट बांटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1905 में बंगाल के विभाजन के विरोध में चलाए गए आंदोलन में भी उन्होंने अति उत्साह से हिस्सा लिया।
6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर हुए बम विस्फोट में भी खुदीराम का नाम सामने आया था। बम विस्फोट के बाद खुदीराम को एक बेहद महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली। उन्हें अंग्रेज अधिकारी किंग्सफोर्ड को मारने की जिम्मेदारी दी गई, जो काफी क्रूर था। इसमें उन्हें प्रफ्फुल चंद्र चाकी का साथ मिला। इस जिम्मेदारी मिलने के बाद दोनों बिहार के मुजफ्फरपुर जिले पहुंचे। एक दिन अवसर पाकर उन्होंने किंग्सफोर्ड की बग्घी में बम फेंक दिया, लेकिन उस बग्घी में किंग्सफोर्ड नहीं था। उसकी जगह एक दूसरे अंग्रेज़ अधिकारी की पत्नी और बेटी थीं। इन दोनों की ही इस विस्फोट में मौत हो गई। बम फेंकने के बाद खुदीराम को फांसी की सजा सुना दी गई। खुदीराम ने सिर्फ 18 साल की उम्र में हाथ में भगवद्गीता लेकर हंसते – हंसते फांसी के फंदे पर चढ़कर इतिहास रच दिया।
एक मीडिया रिपोर्ट की मानें तो, मुजफ्फरपुर जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने उन्हें फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, उसी ने बाद में बताया कि खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे की तरह बिना डरे फांसी के तख़्ते की ओर बढ़ा था। शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे उनके नाम की एक खास किस्म की धोती बुनने लगे।
राजद्रोह के आरोप से मुक्ति
फरवरी 1906 में मिदनापुर में औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी लगी थी। इस प्रदर्शनी को देखने के लिये आसपास के स्थानों से कई लोग आए। ऐसे में खुदीराम ने बंगाल के एक क्रांतिकारी सत्येंद्रनाथ द्वारा लिखे ‘सोनार बांगला’ नामक ज्वलंत पत्रक की प्रतियां बांटना शुरू कर दिया। ऐसा करते उन्हें एक पुलिस वाले ने देख लिया और वो खुदीराम को पकड़ने के लिए भागा, लेकिन खुदीराम ने उस सिपाही के मुंह पर घूंसा मार दिया और बचे हुए पत्रक बगल में दबाकर भाग निकले। इस घटना के बाद राजद्रोह के आरोप में सरकार ने उन पर अभियोग चलाया लेकिन गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष साबित हुए।
कैद से भागे
इतिहासविद मालती मलिक के अनुसार 28 फरवरी 1906 को खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन वे कैद से भाग निकले। करीब लगभग दो महीने बाद अप्रैल में उन्हें फिर से पकड़ लिया गया। फिर 16 मई 1906 को रिहा हो गए।
खुशी खुशी फांसी पर चढ़े तो अंग्रेज अधिकारी ने घबराकर छोड़ी नौकरी
किंग्जफोर्ड पर हमले की साजिश के दूसरे दिन पुलिस ने शक के आधार पर प्रफुल्लकुमार चाकी पकड़ना चाहा। चाकी ने खुद पर गोली चलाकर अपने प्राण त्याग दिए। जबकि खुदीराम को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी का अन्त निश्चित ही था। 11 अगस्त 1906 को भगवद्गीता हाथ में लेकर खुदीराम धैर्य के साथ खुशी – खुशी फांसी चढ़ गए, लेकिन किंग्जफोर्ड ने घबराकर नौकरी छोड़ दी और जिन क्रांतिकारियों को उसने कष्ट दिया था उनके भय से उसकी शीघ्र ही मौत भी हो गयी।