आयुक्त का डिसेंट नोट 'सवालों के घेरे में', महापौर बोली एक्ट की पालना नहीं हुई तो रोका क्यों नहीं ?
नगर निगम की संचालन समितियों का प्रस्ताव निरस्त होने के मामले में नगर निगम ग्रेटर आयुक्त यज्ञमित्र सिंह देव सवालों के घेरे में आ गए हैं। प्रस्ताव के साथ आयुक्त ने डिसेंट नोट भेजा था, जिसमें उन्होंने समितियों के गठन में एक्ट की पालना नहीं होने का हवाला दिया था।

जयपुर।
नगर निगम की संचालन समितियों का प्रस्ताव निरस्त होने के मामले में नगर निगम ग्रेटर आयुक्त यज्ञमित्र सिंह देव सवालों के घेरे में आ गए हैं। प्रस्ताव के साथ आयुक्त ने डिसेंट नोट भेजा था, जिसमें उन्होंने समितियों के गठन में एक्ट की पालना नहीं होने का हवाला दिया था। इस पर भाजपा ने सवाल उठाया कि अगर समितियों का गठन एक्ट के प्रावधानों के अनुसार नहीं हो रहा था तो आयुक्त ने बैठक में ही आपत्ति क्यों नहीं दर्ज कराई ? आयुक्त ने बैठक के दौरान ही महापौर को समिति गठन में एक्ट की पालना नहीं होने को लेकर क्यों सलाह नहीं दी ? इन तमाम सवालों को लेकर उलटे भाजपा ने आयुक्त पर ही एक्ट की पालना नहीं करने का आरोप लगाया है। जल्द ही एक प्रतिनिधिमंडल राज्यपाल और मुख्यमंत्री से मिलेगा। जरूरत पड़ने पर कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया जाएगा।
भाजपा ने आरोप लगाया है कि राजस्थान नगरपालिका अधिनियम 2009 की धारा 49 (2) में साफ उल्लेख है कि नगरपालिका या उसकी किसी भी समिति की कार्रवाई या संकल्प या अध्यक्ष के आदेश में एक्ट की पालना नहीं होने पर नगपालिका अधिकारी (आयुक्त) का यह कर्तव्य होगा कि वह अधिनियम के उपबंधों की पालना कराए। वह समिति या अध्यक्ष को सलाह दे। अगर उसे सलाह दी है तो समिति की बैठक की कार्रवाई या अध्यक्ष के आदेश पर यह तथ्य दर्ज करे कि उसने ऐसी सलाह दी थी। इसके बाद वह ऐसी कार्रवाई, संकल्प या यथास्थिति या आदेश पर डिसेंट नोट प्रस्तुत करे। मगर आयुक्त ने साधारण सभा की बैठक में धारा 49 (2) की पालना नहीं की। इसे लेकर बैठक की रिकॉर्डिंग में भी कोई उल्लेख नहीं है। ना ही कार्यवाही विवरण में आयुक्त ने यह अंकित किया है कि वह इस कार्यवाही से सहमत नहीं हैं। इसके बाद भी आयुक्त् ने डिसेंट नोट लगाकर सरकार को समितियों का प्रस्ताव अनुमोदन के लिए भेज दिया।
बाहरी लोग स्थाई सदस्य नहीं होते
राजस्थान नगरपालिका अधिनियम 2009 की धारा 56 में साफ उल्लेख है कि बोर्ड ने स्थायी सदस्यों की नियुक्ति नहीं की है। मात्र ऐसे व्यक्तियों के नाम समितियों के लिए अस्थाई रूप से अधिकृत किए हैं, जो नगरपालिका के काम का अच्छा ज्ञान रखते हैं। इन्हें नगपालिका द्वारा बदला भी जा सकता है। एक्ट में कहीं भी ऐसा प्रावधान नहीं है कि इन व्यक्तियों को एक बार अधिकृत करने के बाद बदला नहीं जा सकता हो। एक्ट में यह भी प्रावधान है कि समितियां समय-समय पर सदस्यों की कुल संख्या के आधे सदस्यों के संकल्प से इन व्यक्तियों को आवश्यकतानुसार बैठक में बुला सकेंगे। समिति की बैठक में इनकी कुल संख्या समिति के सदस्यों की एक-तिहाई से ज्यादा नहीं होगी। जबकि आयुक्त ने डिसेंट नोट लगाने से पहले इन बिन्दुओं की ना तो व्याख्या की और ना ही पत्रावली पर इन समस्त तथ्यों का अधिनियम की पालना में परीक्षण कराया। ऐसे में आयुक्त ने खुद अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं किया।
एक ही प्रकार के प्रकरण में दो आदेश क्यों ?
भाजपा ने यह भी आरोप लगाया है कि पूर्व महापौर विष्णु लाटा के समय 6 मार्च, 2019 को इसी सरकार के कार्यकाल में समितियों के गठन के अनुमोदन का स्वीकृति आदेश जारी किया गया था। उस समय भी बोर्ड से पास करवाकर ही प्रस्ताव सरकार को भेजा गया था। एक ही प्रकार के प्रकरण में डीएलबी के अलग—अलग आदेश भी सवालों के घेरे में है।
फिर कार्यकारी समिति में सदस्य कौन होंगे ?
सरकार के आदेश में केवल कार्यकारिणी समिति को सही बताया गया है। जबकि इस समिति में महापौर के अलावा सभी समिति चेयरमैन सदस्य होते हैं। अगर समितियों का प्रस्ताव निरस्त हो गया है तो इस समिति में सदस्य कौन होंगे। यह भी बड़ा प्रश्न है।
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