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जयपुर

विचारधारा मानवाधिकार और सियासत

मामला सिर्फ गौरी लंकेश का नहीं है, संघ के लोगों की हत्या तक सीमित नहीं है। कभी देश के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी पुरानी बनाम नई संस्कृति के नाम

जयपुरSep 08, 2017 / 11:40 pm

पुनीत कुमार

Patrika Prime Time
विशाल सूर्यकांत

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जिस रूप में केरल,कर्नाटक और पश्चिमी बंगाल में राजनीतिक हिंसा के मामले बढ़ रहे हैं वो चिंता पैदा कर रहे हैं कि लोकतंत्र की पैरवी करती राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता किस राह पर चल रहे हैं ? क्या मुद्दा अब इस बात पर आ टिका है कि देश में दो विपरीत विचारधाराएं, इस देश में साथ नहीं चल सकती ? क्या आती-जाती सत्ताओं के अनुरुप विचारों का आक्रामक प्रस्तुतिकरण होता है ?
पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या ही नहीं बल्कि हत्या के बाद बने माहौल को लेकर सभी के ज़ेहन में एक बेचैनी होगी। मुद्दा पिछले दो-तीन दिनों से गरमाया हुआ है लेकिन अभी तक गौरी लंकेश के कातिल पकड़े नहीं गए है। बावजूद इसके, इस मुद्दे पर सोशल मीडिया पर परम्पर विरोधी विचारधाराओं की जंग इस रूप में चल रही है कि हमनें इसी पहलू को मुद्दा बना लिया है।
एक और वजह, ये भी बनीं कि गौरी लंकेश के मामले में अब तक बीजेपी के नेताओं के कई बयान आए लेकिन अधिकारिक रूप से आज पहली बार रविशंकर प्रसाद ने अपनी बात सामने रखी। राहुल गांधी ने अगले ही दिन गौरी लंकेश की हत्या को लेकर संघ-भाजपा को घेर लिया। इस मुद्दे पर रविशंकर प्रसाद ने पलटवार करते हुए कहा कि आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्या में मानवाधिकारवादी आवाज क्यों नहीं उठाते…यानि मानवाधिकार के नारे का भी सियासी सुविधा के मुताबिक इस्तेमाल हो रहा है।
 देखिए इस वीडियो में गौरी लंकेश की हत्या के मुद्दे पर कैसे उफान पर है देश की सियासत ? 

जिस रूप में केरल,कर्नाटक और पश्चिमी बंगाल में राजनीतिक हिंसा के मामले बढ़ रहे हैं वो चिंता पैदा कर रहे हैं कि लोकतंत्र की पैरवी करती राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता किस राह पर चल रहे हैं ? क्या मुद्दा अब इस बात पर आ टिका है कि देश में दो विपरीत विचारधाराएं, इस देश में साथ नहीं चल सकती ? क्या आती-जाती सत्ताओं के अनुरुप विचारों का आक्रामक प्रस्तुतिकरण होता है ? इसीलिए हम बात करेंगे आज विचारधारा,मानवाधिकार और सियासत की… सहमति और सहमत नहीं होने वाले खेमे में बंटी सियासत। देश ने काफी सोच समझ के आजादी के बाद लोकतंत्र को अपनाया। संविधान में वाणी और धर्म की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार दिया। कानून का शासन अपनाते हुए ये तय हुआ कि मतभेदों का निराकरण बातचीत और बहस के जरिये होगा और अगर बातचीत से हल नहीं निकला तो अदालत का फैसला मानेंगे। न संविधान में और ना ही हमारी संस्कृति में कहीं हिंसा के जरिए समाधान खोजने की पैरवी की गई है।
अगर किसी को सजा देनी है तो अधिकार पूरी तरह अदालतों में निहित है। इतने स्पष्ट नियम-कायदे कानून है कि कोई संदेह ही नहीं, फिर समाज में हिंसा ग्लोरिफाई करने वाले कहां से प्रश्रय पाते हैं। लगता है कि आज जिसे हम राजनीति कहते हैं वो समाज,जाति,धर्म,विचार,संस्कृति के नाम पर बन रहे टकरावों के मकान में रहने चली गई है। सरकार को तो संविधान से ही चलना है लेकिन संगठनों का अपना अलग अघोषित संविधान बनने लगा है जो सोशल मीडिया से लेकर कई राज्यों में राजनीतिक और वैचारिक हिंसा की शक्ल दिखा रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2014 के आंकडों को देखें तो देश में राजनीतिक हिंसा में 2400 लोगों की जानें गई हैं। साम्प्रदायिक हिंसा में दो हजार लोग मारे गए हैं।
गौरी लंकेश की हत्या की घटना से एक मुद्दा उठा है कि क्या ये कानून व्यवस्था का मामला है या फिर एक राजनीतिक मुद्दा…? क्योंकि हत्या के बाद जिस रूप में सियासत का चेहरा सामने आया है वो कई सवालों को जन्म दे रहा है। वामपंथ-दक्षिणपंथ की राजनीतिक धाराएं,सामाजिक धाराओं में बिखरा है हमारा भारतीय समाज। देखिए गौरी लंकेश की हत्या के मुद्दे पर पत्रिका टीवी स्टूडियो में तीखी तक़रार, देखिए क्यों उलझे कांग्रेस,बीजेपी और लेफ्ट के नेता …डिबेट के इस हिस्से में…
मामला सिर्फ गौरी लंकेश का नहीं है, संघ के लोगों की हत्या तक सीमित नहीं है। कभी देश के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी पुरानी बनाम नई संस्कृति के नाम पर, कभी नवजागृति और बदलाव के नाम पर कमोबेश हर दल, मुद्दे इस आक्रामकता के साथ उठा रहा है कि हिंसा के लिए प्लॉट अपने आप तैयार हो जा रहा है। इस मामले में क्या वामपंथ और क्या दक्षिण पंथ, क्या कांग्रेस, क्या बीजेपी सब एक सफ में खड़े नजर आते है। देश में लोकतंत्र कुछ यूं बदल रहा है कि सोशल मीडिया, खुले आम विरोधी को कोसने,गालियां देने और धमकाने का प्लेटफॉर्म बन रहा है।
आप किसी भी राजनीतिक,सामाजिक,धार्मिक विचारधारा के हो सकते हैं। लेकिन किसी को मत को स्वीकारने या खारिज करने का मेरा अधिकार तो सुरक्षित रहना चाहिए। हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत नहीं हो पाउं, फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूंगा। वाल्तेयर की इन पंक्तियों को राजस्थान पत्रिका अखबार के संपादकीय पेज पर रोज पढ़िए ताकि मन, खुद के प्रति और औरों के प्रति सहिष्णु बना रहेगा।

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