आर्यन शर्मा @ जयपुर. नाटक ’12 एंग्री मैन’ एक ऐसे कमरे में सेट किया गया है, जिसमें 12 जूरी मेंबर एकत्रित हुए हैं। ये एक-दूसरे के लिए अजनबी हैं। माहौल तनावपूर्ण है। जूरी सदस्यों को उस 19 साल के लड़के के भाग्य के बारे में फैसला करने के लिए कहा गया है, जिस पर अपने पिता की हत्या करने का आरोप है। जूरी को यह फैसला देना है कि वह लड़का ‘कसूरवार’ है या ‘बेकसूर’। यह फैसला एकमत होना चाहिए। असहमति के मामले में फैसले को शून्य माना जाएगा। जैसे ही जूरी सदस्य हत्या के मामले में बहस करना शुरू करते हैं तो इस मामले के तथ्यों और चश्मदीद गवाहों के बयानों तथा युवक की पृष्ठभूमि को देखते हुए उन्हें लगता है कि यह ‘ओपन-एंड-शट केस’ है।
बहस की शुरुआत में वोटिंग होती है। जूरी के 11 सदस्य कहते हैं कि युवक हत्यारा है यानी दोषी है, मगर केवल एक सदस्य यानी जूरी नंबर 8 कहता है कि युवक दोषी नहीं है। अब तीखी बहस छिड़ जाती है। इस मुद्दे को कई बार वोटिंग के लिए रखा जाता है, प्रत्येक वोटिंग के साथ दोषी न होने की संख्या बढ़ जाती है। बहस के दौरान मेंबर्स के असली चेहरे, निजी विचार और सामाजिक पूर्वाग्रह उभरने लगते हैं। यहां तक कि एक-दूसरे को जलील करने से भी वे नहीं चूकते। बहस आगे बढ़ने और वोटिंग के साथ-साथ जहां अधिकांश मेंबर अपना फैसला बदल लेते हैं, वहीं जूरी नंबर 3 इसे लेकर पूरी तरह आश्वस्त है कि उस लड़के ने ही अपने पिता को मारा है। हालांकि, जूरी नंबर 3 क्लाइमेक्टिक सीन में दर्शकों को स्तब्ध कर देता है।
बहरहाल, नाटक को लय पकड़ने में शुरुआती कुछ मिनट लगते हैं, लेकिन जब यह एक बार फ्लो में आ जाता है तो नाटक की रिदम के साथ दर्शकों के ‘आनंद की ताल’ मिल जाती है और उनकी दिलचस्पी नाटक में बढ़ने लगती है। तामझाम से रहित इस प्रस्तुति में हर संवाद कौतूहल जगाता है। तमाम चरित्र जटिलताओं के बावजूद नाटक का आधार काफी सरल है। नाटक की संरचना घटना प्रधान की बजाय संवाद प्रधान है। एक्टर्स ने जिस अंदाज में महज एक कमरे के सेट में कॉन्फ्रेंस टेबल और कुर्सियों पर बैठने-उठने, चहलकदमी और भाव-भंगिमाओं को अभिव्यक्त किया है, वह इस नाटक की खूबसूरती है। अभिनय, निर्देशन और मंच पार्श्व तीनों के लिहाज से इसे एक संतुलित प्रस्तुति कहा जा सकता है, जो करीब एक घंटे 30 मिनट तक भावनात्मक व वैचारिक स्तर पर दर्शकों को अपने से कनेक्ट करके रखती है और उनका मनोरंजन करती है। कसा हुआ निर्देशन, कलाकारों की अदाकारी व संवाद अदायगी, मंच सज्जा और सेट प्रॉपर्टी नाटक की मूल भावना के अनुकूल हैं। नाटक में उस समय का ‘जीवंत’ दृश्य देखने को मिलता है जब अदालती फैसले जूरी मेंबर किया करते थे। अभिनय की बात करें तो जूरी नंबर 3 के रूप में योगेन्द्र सिंह ने एक अभिनेता के तौर पर खुद को और एक्सप्लोर किया है। जहां किरदार की डिमांड के मुताबिक उन्होंने अपनी एक्टिंग व डायलॉग डिलीवरी में अग्रेशन दिखाया है, वहीं दूसरी ओर क्लाइमैक्स में अपने (जूरी नंबर 3) बेटे के साथ कड़वे रिश्ते व अपने पूर्वाग्रह का खुलासा कर भावुक कर दिया और दर्शकों की सहानुभूति भी बटोर ली। उन्होंने वास्तव में अपने चरित्र को जीया है। महमूद अली अपने सहज अभिनय से प्रभावित करने में सफल रहे हैं। राजेश कसाना की अपीयरेंस दर्शकों को हंसने-गुदगुदाने का मौका देती है तो आक्रामक अंदाज के साथ ओम मीणा की परफॉर्मेंस सराहनीय है। चित्रार्थ मिश्रा और संदीप मिश्रा भी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। विपिन चौधरी, राजा भाट, राहुल जांगिड़, मोहित भट्ट, कमलेश बैरवा और नरेश प्रजापत ने भी अपने-अपने किरदार के मिजाज व पृष्ठभूमि को पकड़ते हुए बढि़या परफॉर्म किया है। सोहित शेखावत ने लाइटिंग और डीके भाटी ने संगीत संयोजन का जिम्मा बखूबी संभाला। ’12 एंग्री मैन’ की यह एक बढि़या और मजेदार प्रस्तुति है। ‘बेकसूर’ है! इसमें कोई दोराय नहीं है कि कोई भी प्रस्तुति परफेक्ट नहीं हो सकती, सुधार की गुंजाइश हमेशा रहती है। एक अच्छा निर्देशक और कलाकार भी वही है, जो अपनी हर प्रस्तुति पहले वाली से बेहतर बनाने की कोशिश करता है। …तो उम्मीद है कि अगली बार इस टीम की ’12 एंग्री मैन’ की प्रस्तुति में ‘चार चांद’ और लगेंगे।