कविता
महेन्द्र कुमार गुदवारे गांव हमारा,
दिल से प्यारा।
पर हम कैसे मजबूर हैं।
पढ़-लिखकर क्या बड़े हो गए।
वही गांव को हम सबने,
अब किया बहुत ही दूर है। गांव में जन्मे,
खेले-कूदे,और पढ़-लिखे,
पढ़-लिखकर जब बड़े हुए,
अपने पांव पर खड़े हुए।
अब थोड़ा सा पैसा पाकर,
सुख-वैभव में चूर हुए।
महेन्द्र कुमार गुदवारे गांव हमारा,
दिल से प्यारा।
पर हम कैसे मजबूर हैं।
पढ़-लिखकर क्या बड़े हो गए।
वही गांव को हम सबने,
अब किया बहुत ही दूर है। गांव में जन्मे,
खेले-कूदे,और पढ़-लिखे,
पढ़-लिखकर जब बड़े हुए,
अपने पांव पर खड़े हुए।
अब थोड़ा सा पैसा पाकर,
सुख-वैभव में चूर हुए।
सुख का दाता उसी गांव से,
अब हम थोड़े दूर हुए।
शहरी बाला से ब्याह हुआ,
तब अपना गांव और दूर हुआ। लगे भूलने खेत को अपने,
लगे देखने शहरी सपने।
आफत करते रहे शहर में,
रहे प्रदूषण के कहर में।
शहरीकरण के किल-किल में
सब के सब थे हम मुश्किल में,
याद आने लगी अब अपने गांव की,
अमराई की उस घनी छांव की।
आओ हम सब लौट चलें,
शहर से अपने गांव भले।
अब हम थोड़े दूर हुए।
शहरी बाला से ब्याह हुआ,
तब अपना गांव और दूर हुआ। लगे भूलने खेत को अपने,
लगे देखने शहरी सपने।
आफत करते रहे शहर में,
रहे प्रदूषण के कहर में।
शहरीकरण के किल-किल में
सब के सब थे हम मुश्किल में,
याद आने लगी अब अपने गांव की,
अमराई की उस घनी छांव की।
आओ हम सब लौट चलें,
शहर से अपने गांव भले।