हादसे विजय लक्ष्मी जांगिड़ हादसे कहाँ देखते हैं
समय ,दिवस, शिकार…..
जो तो बस घट जाया करते हैं
शायद कोई न कोई नियति होती है
या फिर दुर्भाग्य
कि उसी समय उसी वक्त
गुजरता है कोई उस जगह से
और आ जाता है चपेट में
फिर …..
फिर शुरू होती है
लकीर पीटने की परंपरा
सबसे पहले कुछ प्रत्यक्षदर्शी
कुछ फुसफुसाते हैं
धीरे धीरे चल पड़ती है
हवा इस किनारे से उस किनारे
फिर रही सही कसर पूरी करता है
मीडिया
कब हुई ये घटना
आखिर कौन कौन थे यहाँ
क्या कनेक्शन है इस जगह का
इस घटना से
और सूत्र पर सूत्र जुड़ते जाते हैं
कुछ दिनों में लोग
मुख्य हादसे को भूल
दूसरे मुद्दों पे बहस करते नज़र आते हैं
फिर शुरू होता है एफ आई आर
बयानबाजी और
कोर्ट कचहरी का
कभी न थमने वाला थकाऊ
सिलसिला
हादसा घुटने लगता है
उसकी तस्वीर बिगड़ने लगती है
कुछ होता है
कुछ और नज़र आने लगता है
खैर कभी कभी कोई हादसा
खुशकिस्मत होता है
उसे इंसाफ मिल जाता है
मगर हर बार ऐसा नही होता
अधिकतर हादसे गुमनामी का
शिकार होकर बेइंसाफी
पर आँसू बहाते
फाइलों में दबे कुदबुड़ाते रहते हैं
समय ,दिवस, शिकार…..
जो तो बस घट जाया करते हैं
शायद कोई न कोई नियति होती है
या फिर दुर्भाग्य
कि उसी समय उसी वक्त
गुजरता है कोई उस जगह से
और आ जाता है चपेट में
फिर …..
फिर शुरू होती है
लकीर पीटने की परंपरा
सबसे पहले कुछ प्रत्यक्षदर्शी
कुछ फुसफुसाते हैं
धीरे धीरे चल पड़ती है
हवा इस किनारे से उस किनारे
फिर रही सही कसर पूरी करता है
मीडिया
कब हुई ये घटना
आखिर कौन कौन थे यहाँ
क्या कनेक्शन है इस जगह का
इस घटना से
और सूत्र पर सूत्र जुड़ते जाते हैं
कुछ दिनों में लोग
मुख्य हादसे को भूल
दूसरे मुद्दों पे बहस करते नज़र आते हैं
फिर शुरू होता है एफ आई आर
बयानबाजी और
कोर्ट कचहरी का
कभी न थमने वाला थकाऊ
सिलसिला
हादसा घुटने लगता है
उसकी तस्वीर बिगड़ने लगती है
कुछ होता है
कुछ और नज़र आने लगता है
खैर कभी कभी कोई हादसा
खुशकिस्मत होता है
उसे इंसाफ मिल जाता है
मगर हर बार ऐसा नही होता
अधिकतर हादसे गुमनामी का
शिकार होकर बेइंसाफी
पर आँसू बहाते
फाइलों में दबे कुदबुड़ाते रहते हैं
खैर, हादसे तो हादसे हैं
जिस पर गुजरते हैं
बस वही समझ सकता है
दूसरों के लिए बस
अख़बार की सुर्खियाँ भर हैं।
जिस पर गुजरते हैं
बस वही समझ सकता है
दूसरों के लिए बस
अख़बार की सुर्खियाँ भर हैं।