सट्टे का नाम आते ही एक चीज और जहन में घूम जाती है। फोन पर सौदे हो जाते हैं। जीत गए तो निश्चित समय में पैसा मिलने की गारंटी लेकिन हार गए तो निश्चित समय में पैसा चुकाना भी पड़ता है। हर चुनाव में सैकड़ों-हजारों करोड़ का सट्टा होता है। नतीजे आते ही सौदों के लेन-देन शुरू हो जाते हैं। सप्ताह-दस दिन में हिसाब-किताब बराबर।
चुनावी सट्टा अमूमन नतीजों के आस-पास ही ठहरता है। लेकिन सट्टे के खेल में एकाध ऐसे भी दौर आए हैं, जब सट्टे की साख पर बट्टा लगा। यानी चुनावी सट्टा विवादों के साए में उलझ गया। ढाई दशक पहले 1991 में ऐसा ही नजारा देखने को मिला था। केन्द्र में चन्द्रशेखर सरकार के धराशायी होने के बाद देश मध्यावधि चुनाव के दौर से गुजर रहा था। जीत-हार की अटकलों के बीच सट्टा बाजार अपना आकलन करने में जुटा था। करोड़ों के दावं लग रहे थे। राजनीतिक दलों पर भी और प्रत्याशियों पर भी। चुनाव प्रचार अपने परवान पर था। एक चरण का मतदान हो चुका था। 21 मई को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदुर में हत्या हो गई। इस खबर से देश सन्न रह गया। चुनाव का माहौल बदल गया। कांग्रेस के प्रति सहानुभूति का माहौल बनने लगा। सट्टा बाजार इस अप्रत्याशित राजनीतिक बदलाव के लिए तैयार नहीं था। राजनीतिक उथल-पुथल के बीच सट्टा बाजार के भाव भी तेजी से बदलने लगे। कांग्रेस के पक्ष में भाव लगाने वालों की बल्ले-बल्ले होने लगी तो इसके विरोध में दावं खेलने वाले सकते थे। सट्टा बाजार के महारथियों के बीच मंथन के दौर शुरू हुए। बड़ा सवाल था कि राजीव गांधी की हत्या के बाद बदले राजनीतिक माहौल में क्या सट्टे के पुराने भाव ठहर पाएंगे? एक असामान्य परिस्थिति थी। सैकड़ों-करोड़ की रकम दावं पर थी, सो फैसला लेना भी आसान नहीं था। आखिर सट्टा बाजार के दिग्गजों की बैठक में पुराने सौदे रद्द करने का फैसला हुआ।
ढाई दशक पहले 1991 में ऐसा ही नजारा देखने को मिला था। केन्द्र में चन्द्रशेखर सरकार के धराशायी होने के बाद देश मध्यावधि चुनाव के दौर से गुजर रहा था। जीत-हार की अटकलों के बीच सट्टा बाजार अपना आकलन करने में जुटा था। करोड़ों के दावं लग रहे थे।
पिछले साल उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजों में उलटा पड़ गया था दावं
पिछले साल मार्च में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों की घोषणा से पहले सट्टा बाजार भाजपा को 150 से अधिक सीटें देने को तैयार नहीं था। खंडित जनादेश के चर्चे आम थे। चुनाव सात चरणों में होना था। ज्यों-ज्यों मतदान के चरण निपटते गए, त्यों-त्यों भाजपा की जीत के भाव घटते गए।
डेढ़ सौ सीटों का आंकड़ा, बहुमत के 202 के आंकड़े को पार करके 250 तक पहुंचने लगा। मतदान का आखिरी चरण आते-आते भाव 275 और फिर 300 का आंकड़ा छूने लगे। और जब नतीजे आए तो धड़कनें मानो रुक ही गईं। शुरुआती दौर में 150 सीटें जीतने लायक नहीं समझे जाने वाली भाजपा 312 का आंकड़ा छू चुकी थी। राजनीतिक हलकों में हाहाकार था तो सट्टा बाजार पहले सकते में गया और फिर सदमे में। भाजपा की 300 सीटों पर 8-10 रुपए के भाव पर दावं खेलने वाले बम-बम थे, तो भाजपा के 200 सीटों पर सिमटने का दावं खेलने वालों के चेहरों की हवाइयां उड़ी हुई थीं। और फिर वही हुआ जो सट्टा बाजार के हिसाब से नहीं होना चाहिए था। भाजपा की बड़ी जीत से अनेक बड़े सटोरिए बगावत पर उतर आए। उन्होंने सौदों का भुगतान करने से इनकार कर दिया। बात सट्टा बाजार की विश्वसनीयता की थी। सटोरियों की पंचायतें शुरू हुईं। लेकिन बात बनी नहीं। जीतने वाले अपना पैसा छोडऩे को तैयार नहीं थे, तो हारने वाले पैसा देने को राजी नहीं थे। लेकिन सट्टा बाजार के जानकारों की नजर में सट्टे पर बट्टा तो लग ही गया था।
हाल के वर्षों में सट्टा बाजार में उथलपुथल के दो बड़े उदाहरण हैं। वर्ष 1991 और 2017 के चुनाव नतीजे। दोनों ही बार सट्टा बाजार को अप्रत्याशित रूप से नतीजों को झेलना पड़ा। कई सौदे खारिज भी हुए थे।