यह गुजरात से लेकर ओडिशा तक फैला है और आकलन के अनुसार छत्तीसगढ़, बिहार और उत्तर प्रदेश में इसकी सबसे ज्यादा व्यापकता है। हाल ही में इसकी व्यापकता गैर-जनजातीय लोगों में भी देखी गई है। इसलिए सिकल सेल डिजीज को देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य की प्राथमिकता के रूप में चिन्हित करने की घोर आवश्यकता है।
एसएमएस मेडिकल कॉलेज प्रोफेसर और पीडियाट्रिक हीमैटोलॉजी ऑन्कोलॉजी डिविजन के हेड डॉ. कपिल गर्ग ने कहा कि अभी जयपुर या राजस्थान में सिकल सेल डिजीज की व्यापकता पर कोई अध्ययन नहीं है, हालांकि यह रोग राजस्थान के सिरोही, पाली, उदयपुर और डुंगरपुर के जनजातीय समुदायों के बीच ज्यादा आम है। कुछ अध्ययनों ने राजस्थान के गरासिया जनजातीय समुदाय में इस रोग की 9.2 प्रतिशत व्यापकता बताई है। व्यवस्थित स्थानीय डाटा के अभाव के चलते शोध और नवाचार में सीमित प्रगति हुई है।
डॉ. कपिल गर्ग ने बताया कि रोग का जल्दी पता लगाने व उस पर नियंत्रण करने के लिए चिकित्सकों और स्थानीय समुदाय के बीच रोग पर जागरुकता बढ़ाना पहला महत्वपूर्ण कदम है। सरकार की ओर से खासकर जनजातीय समुदायों के बीच चलाए जाने वाले स्क्रीनिंग प्रोग्राम्स में प्रभावी आनुवांशिक और विवाह पूर्व परामर्श भी शामिल किया जाना चाहिए। नवजात शिशु की जांच से रोग का जल्दी पता लगाने और सही समय पर उपचार करने में मदद मिल सकती है, ताकि माता-पिता समग्र उपचार और रोग नियंत्रक समाधान लेने में अपने बच्चे का सहयोग कर सकें।
नेशनल अलायंस ऑफ सिकल सेल ऑर्गेनाइजेशंस (एनएएससीओ) के मेंबर सेक्रेटरी गौतम डोंगरे ने बताया कि भारत में सिकल सेल डिजीज (एससीडी) कम्युनिटी के लिए कोई पॉलिसी बनाने और क्रियान्वित करने में रोगी और उसकी देखभाल करने वालों की बात का समावेश जरूरी है। एससीडी का आशय लाल रक्त कणिकाओं के वंशानुगत रोगों के एक समूह से है। इसके लक्षण हैं बार-बार दर्द होना जिसे वैसो-ऑक्लुसिव क्राइसेस (वीओसी) भी कहा जाता है और बुखार। लंबी अवधि में इससे उत्पन्न होने वाली जटिलताओं में से कुछ हैं- अंगों की क्षति, किडनी का पुराना रोग और कार्यात्मक अक्षमता, थकान और पैर में छाले।