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जयपुर

कहानी-सुनने की मशीन

कैलाश के सामने देवधर की ली जाने वाली क्लास का काल्पनिक दृश्य उभरा तो आंखें धुंधला सी गईं। सुनने वाली मशीन न लगाने की जिद के पीछे छिपा कारण समझ में आया।

जयपुरOct 21, 2020 / 11:50 am

Chand Sheikh

कहानी-सुनने की मशीन

कहानी-सुनने की मशीन

मीनू त्रिपाठी

कहानी

सुबह-सुबह अखबार उठाने के लिए देवधर फाटक के पास पहुंचे तो नजर ऑटो पर पड़ी जो एकदम फाटक के पास आकर रुका था। उत्सुकतावश वह ऑटो में आए आगंतुक को देखने लगे। आगंतुक ने जब तक ऑटो वाले को पैसे दिए उतनी देर में स्मृतियों को खंगालकर देवधर ने आने वाले के स्वागत में फाटक खोल दिया और उनके मित्र कैलाश हंसते हुए उनके गले से लग गए।
करीब बीस साल पहले कैलाश का परिवार देवधर के घर में किराएदार के तौर पर आया और तकरीबन दस साल तक रहा। इस बीच उनके संबंध बेहद घनिष्ठ हो गए थे। दस साल पहले जब कैलाश लखनऊ से आगरा अपने घर में शिफ्ट होने लगे तब आंसुओं से उनकी विदाई हुई थी।
आज सालों बाद मिलने पर दोनों मित्र विस्मय और प्रसन्नता के अतिरेक में कुछ बोल नहीं पाए बस आह्लादित भाव से एक-दूसरे को देखते रहे।
कैलाश को देवधर पहले से कमजोर लगे, वहीं देवधर कैलाश की आंखों पर चढ़े मोटे चश्मे और बिना रंगे बालों की सफेदी देख कुछ हैरान हुए।
‘यहां कैसे …’ भावुक देवधर ने गले को खंखारते हुए पूछा तो कैलाश बोले, ‘बहन की बेटी की शादी है लखनऊ में। लड़का यहीं से है सो शादी यहीं से हो रही है।’
देवधर को शायद ठीक से सुनाई नहीं दिया पर दोबारा पूछे बगैर वह उत्साह से उनका हाथ पकड़कर बोले ‘चलो-चलो भीतर चलो।’ बैठक में प्रवेश करते हुए कैलाश ने कहा, ‘रेणुका भी आना चाहती थी… पर वहां झामेलों में फंस गई। मैं तो निकल आया।’
बैठक से आती आवाजें सुनकर देवधर के बहू-बेटा भी आ गए। बेटे ने विस्मय से सालों बाद आए अपने कैलाश अंकल को देखा और पैर छुए। बहू ने भी कुछ संकोच में भरकर प्रणाम किया। देवधर की पत्नी सरला की हार चढ़ी तस्वीर देख कैलाश बोले, ‘सरला भाभी के गुजर जाने की बात सुनकर बड़ा दु:ख हुआ।’
चेहरे पर विषाद की रेखाएं देखकर कैलाश देवधर से बोले, ‘खुशकिस्मत हो जो बेटे-बहू के साथ हो।’
देवधर की बहू चाय-बिस्किट रखकर शिष्टाचार के नाते वहीं बैठ गई थी। कैलाश महसूस कर रहे थे कि देवधर कोई भी बात सरलता से नहीं सुनते हंै। सुनने के लिए वह चेहरा पास ले आते हैं। कुछ भाव से और कुछ होंठों की भंगिमा से बात समझाते हैं। जब नहीं समझाते तो माथे पर सलवटों के साथ ‘हैं…हैं…’ एक-दो बार करते हैं। तब उसी बात को ऊंचे स्वर में दोहराया जाता है। कभी-कभी तो कोई शब्द तीन-चार बार बोलना पड़ता है।
कैलाश से नहीं रहा गया तो तेज आवाज में बोले, ‘भाई तुम कानों में सुनने वाली मशीन क्यों नहीं लगवा लेते।’ सुनते ही बेटे ने कहा,’पापा को लाकर दी है पर लगाते ही नहीं है।’
देवधर समझा गए थे कि बात सुनने वाली मशीन के विषय में हो रही है सो सफाई में बोले, ‘क्या करे। अटपटी सी लगती है। लगता है कान में कुछ ठूंस दिया है।’
‘पापा को लेटेस्ट डिजाइन लाकर दिया है। उसे लगाकर तो पता ही नहीं लगता कि कुछ लगाया भी है।’ बेटे ने कहा तो कैलाश जी मित्रता का लाभ उठाते हुए उन्हें आड़े हाथों लेते हुए फिर तेज स्वर में कहा, ‘इस उम्र में बेटे-बहू की बात सुनने में तुम्हारी भलाई है। क्यों बच्चों को परेशान करते हो। जब लाकर दी है तो लगाते क्यों नहीं?’
अब तक चुप बैठी बहू भी बोल पड़ी, ‘पापा जी को मशीन लगाने से एलर्जी है। दो-दो महंगी मशीन लेकर आए पर दो दिन भी नहीं लगाया।’
बच्चे-बूढ़े शायद एक से ही होते हैं, तभी देवधर कानों में मशीन न लगाने के तरह-तरह के तर्क दे रहे थे। बेटे-बहू का देवधर को सुनने वाली मशीन का उलाहना देना कैलाश को भला लगा। इससे देवधर के प्रति उनके परवाह की भी पुष्टि हुई।
सुनने वाली मशीन को लेकर होती बहस से बचने के लिए वो बहू से बोले…’अरे भई, अपने कैलाश अंकल को कुछ खिलाओ-पिलाओ। ऐसा करो, पोहा बना दो। इसे कांदा पोहा बहुत पसंद है।’ यह सुनते ही बहू ने अपने पति को कुछ इशारा किया और दोनों अंदर चले गए। कैलाश की सरसरी नजर उन पर पड़ चुकी थी। उनका बिना बताए आना और तिस पर देवधर द्वारा मित्र के लिए पोहे की मांग ने कहीं उनकी नियमित दिनचर्या को भटका न दिया हो। पोहे के लिए वह मना करने ही वाले थे कि तभी देवधर ने चाय का कप उनकी ओर बढ़ाया। क्षणिक विचार में डूबे कैलाश असावधानीवश कप पकड़ते हुए जरा सी चाय अपने ऊपर छलका बैठे। कैलाश के कुर्ते पर गिरी चाय देखकर
देवधर ‘अरे…’ कहकर अफसोस और चिंता भरे भाव से उठने लगे तो कैलाश उनको बैठने का इशारा करते हुए वह तेजी से डाइनिंग रूम के कोने में लगे वॉशबेसिन की ओर बढ़े।
कुर्ते में लगा दाग साफ करके कैलाश आए तो देवधर बड़ी तन्मयता से सुनने वाली मशीन कानों में फिट करते दिखे। कैलाश को देखकर उन्होंने पूछा, ‘दाग तो नहीं पड़ा?’
‘अरे ठीक है, ये दाग तुम्हारी याद दिलाएगा।’ कैलाश कुर्ते पर लगे दाग को सहलाते हुए बोले, फिर देवधर के कंधे पर हाथ रखकर कहने लगे, ‘सुनो, शादी वाले घर में आया हूं। खा-खाकर पेट का बुरा हाल है। हो सके तो बहू को मना कर दो। पोहा-वोहा खाने का जरा मन नहीं है।’
“अरे बनने दो। तुम्हारे बहाने मैं भी खा लूंगा। वरना रोज वही दलिया और ब्रेड।’ देवधर के कहने पर कैलाश चुप हो गए तो वह बोले, ‘अब सुनाओ हालचाल। देखो, तुम्हारे लिए सुनने वाली मशीन लगा ली है।’ मित्र को उत्साहित देखकर कैलाश मुस्करा दिए और फिर ढेर सारी बातें हुईं।
सरला भाभी और रेणुका की कटोरियों की अदला-बदली, इतवार को इक_े बैठकर खाना, घूमना-फिरना स्मृतियों में बसे वो सुनहरे दिन दोहराए गए। कैलाश ने ध्यान दिया कि पुरानी बातें साझाा करने पर देवधर के चेहरे पर रौनक आ गई थी। इस बीच बहू पोहा बनाकर रख गई थी।
चलते समय दोनों मित्र एक बार फिर गले मिले। कैलाश देवधर की पीठ सहलाते हुए भावुक हो गए। ऑटो आ गया था। सहसा कैलाश ने देवधर के कानों में लगी मशीन निकालते हुए उनकी जेब में डालते हुए कहा, ‘अटपटी लगती है तो मत लगाओ।’
‘ये कानों वाली मशीन वैसे तो मुझो जरा नहीं सुहाती, पर आज न लगाता तो तुम्हारे साथ पुरानी यादों का लुत्फ कैसे उठाता। आनन्द आ गया।’ उनकी आंखों में नमी आ गई।’
ऑटो गली में मुड़ नहीं गया तब तक देवधर हाथ हिलाते रहे। ऑटो में बैठे कैलाश की नजर सहसा कुर्ते पर पड़े दाग पर पडी। ये दाग तो शायद निकल जाएगा पर मन में पड़े दाग का क्या करें। उन्होंने सोचा काश! वो देवधर के बेटे-बहू की बातें न सुनते।
दो घंटे पहले जो हुआ उसकी रील सी मस्तिष्क पर चली। कुर्ते पर लगे दाग को धोने के लिए जब वह डाइनिंग रूम की ओर बढ़े तो बगल वाले कमरे से देवधर की बहू की झाुंझालाहट भरा स्वर कानों में पड़ा, ‘पापा को तो जरा भी समझा नहीं है। पोहा बना दो बस जुबान हिला दी।’
‘अब बोला है तो बनाना ही पड़ेगा। दोस्त को देखकर जरा ज्यादा ही जोश में आ गए। जाने दो अंकल को फिर लूंगा पापा की क्लास।’ देवधर के बेटे ने अपनी पत्नी को तसल्ली दी।
कैलाश के सामने देवधर की ली जाने वाली क्लास का काल्पनिक दृश्य उभरा तो आंखें धुंधला सी गईं। सुनने वाली मशीन न लगाने की जिद के पीछे छिपा कारण उनकी समझा में आया तो वह चश्मे को उतारकर रुमाल से आंखें साफ करने लगे।

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