रियासतकाल के दौरान बड़ी संख्या में थे बाघ: मेवाड़ में रियासत काल के दौरान बड़ी संख्या में बाघ थे। जंगलों में बनी शिकार औदिया, महलों व अन्य इमारतों पर प्राचीन भित्ति चित्रों आदि के आधार पर यह कहा जा सकता है कि तब इस क्षेत्र के सघन जंगलों में बड़ी तादाद में बाघ थे। इनके शिकार (भोजन ) के लिए सांभर, चीतल और अन्य वन्यजीव भी पर्याप्त संख्या में थे। वन्य जीव विशेषज्ञ सतीश शर्मा के अनुसार वर्ष 1900 से 1901 में छपनिया अकाल पड़ा। उस कालखण्ड़ में मेवाड़ के घने अभयारण्यों में पेड़-पौधे खत्म हो गए। जंगलों में जानवरों के लिए पीने का पानी, हरियाली व शाकाहारी जानवर नष्ट हो गए। बाघ के लिए भोजन के रूप में सांभर, चीतल व अन्य जानवर खत्म होने के साथ बाघ और अन्य वन्यजीवों का भी खात्मा हो गया। यही बाघ के लुप्त होने का प्रमुख कारण रहे।
सांभर, चौसिंगा भी यहां काफी संख्या में थे : शर्मा ने बताया कि काले हिरण भी यहां के जंगलों में खूब मिलते थे, लेकिन अब वे यहां से खत्म ही हो गए। बस, भीलवाड़ा में कुछ जगह बचे हैं। इसी तरह बार्किंग डीयर, जंगली कुत्ता, सांभर, चौसिंगा आदि भी अब यहां से लगभग गायब हो चुके हैं। सियागोश और ऊदबिलाव भी संभवत: खत्म हो चुका है। यह सब अधिकतर 60 से 70 सालों के बीच हुआ है, जब विकास का दौर शुरू हुआ। लेकिन, धीरे-धीरे अब फिर से लोगों में वन्यजीवों के प्रति जागरूकता बढ़ी है। यहां रस्टी स्पॉटेड कैट काफी नजर आने लगी है, जो एक समय लगभग दुर्लभ हो चुकी थी। ऐसे में ये संकेत अच्छे हैं। वहीं, विशेषज्ञ डॉ. सुनील दुबे ने बताया कि मेवाड़ बाघ और सिंह का कॉरिडोर होता था। वहीं, यहां के जंगलों में सांभर और चौसिंगा भी काफी संख्या में थे। कुंभलगढ़ और सीतामाता में ये विलुप्ति की कगार पर हैं। फुलवारी की नाल में भी ये गायब हो गए हैं।